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-१८. ३६] - उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
३६७ 1457) दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः
मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वे ऽपि जन्तवः ॥ ३३*९ 1458) पुष्पादिरशनादिर्वा न स्वयं धर्म एव हि ।
क्षित्यादिरिव धान्यस्य किंतु भावस्य कारणम् ॥३३*१० 1459) श्रद्धा समुत्कर्षि मनो जनानां यद्यप्रकम्पं सकृदेव जातम् ।
फलं प्रसूते ऽनुपमप्रभावं लोहानि विद्धानि रसेन यद्वत् ॥ ३४ 1460 ) तपोदानार्चनाहीनं मनः सदपि देहिनाम् ।
तत्फलप्राप्तये न स्यात्कुसूलस्थितबीजवत् ॥ ३५ 1461) आवेशिकज्ञातिषु संस्थितेषु दीनानु कम्पेषु यथायथं तु ।
__देशोचितं कालबलानुरूपं दद्याच्च किंचित्स्वयमेव बुद्ध्वा ॥ ३६ धारण कर के आजीविका करनेवालों के यहाँ मुनियों को आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥ ३३*८ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन वर्णवाले मनुष्य जिनदीक्षा ग्रहण करने के योग्य हैं । चार वर्ण आहार ग्रहण करने के योग्य हैं। परन्तु आहार देने के योग्य चारों ही वर्णवाले है तथा मन, वचन और शरीर के द्वारा धर्म धारण करने की योग्यता सब ही प्राणी - पशु-पक्षी आदि भी रखते हैं ॥ ३३* ९ ॥
जिस प्रकार भूमि आदि स्वयं धान्य नहीं है, किन्तु उसकी कारण है, इसी प्रकार पुष्प आदि-पूजा सामग्री -और भोजन आदि - भयाभक्ष्य आदि पदार्थ - स्वयं तो धर्म नहीं हैं, किन्तु भाव के - परिणामविशुद्वि स्वरूप धर्म के कारण है ।। ३३*१० ॥
मनुष्यों का श्रद्धा से उत्कर्ष को प्राप्त हुआ मन यदि एक बार भी निश्चल होता है तो वह असाधारण प्रभाववाले फल को इस प्रकार उत्पन्न करता है जिस प्रकार कि पारद रस से विद्ध हुओ लोहधातुएँ अनुपम प्रभाववाले फल को- सुवर्णरूपता का उत्पन्न करतो हैं ॥ ३४॥
जिस प्रकार कुशूल - कुठिया में – रखा हुआ बीज - गेहूँ आदिके कण-फलप्राप्ति के लिये - नवीन धान्य को उत्पन्न करनेवाले - नहीं होते हैं, किन्तु जब उन्हें योग्य भूमि में बोया जाता है तथा जल से सिंचन आदि किया जाता है तब ही वे उपर्युक्त फल के देने में समर्थ होते हैं, ठीक उसी प्रकारसे तप, दान और पूजा आदि शुभ अनुष्ठान के विचार से रहित प्राणियोंका मन विद्यमान होता हुआ भो उस फलप्राप्ति के लिये - स्वर्ग मोक्षरूप फल के प्राप्त कराने में समर्थ नहीं होता है ॥ ३५ ॥
आवेशिक-अभ्यागत, सजातीय बन्धुजन, संस्थित-सम्यक् अवस्थित या आश्रित ३४) 1 उत्पादयति । ३५) 1 कोष्ठागार. 2 D स्थिति । ३६)1 संततिरूप ।