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- धर्मरत्नाकर: -
१८. २७
पुनर्भङ्ग्यन्तरेण1433) विवर्णकं नो विरसं न विद्धमसात्मकं न प्रसृतं प्रदेयम् ।
गदावहं हर्नावतामकल्प्यं स्वयं मुनिभ्यश्च विशेषतस्तत् ॥ २७ 1434 ) उच्छिष्टं नीचलोकाह मन्योद्दिष्टं विहितम् ।
न देयं दुर्जनस्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् ।। २७*१ 1435 ) ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्रानीतमुपायनम् ।
न देयमापणक्रीतं विरुद्धं चायथर्तुकम् ।। २७*२ 1436 ) दधिपिःपयोभक्ष्यप्रायं पर्युषित मतम् ।।
गन्धवर्गरसभ्रष्टमन्यत्सर्वं विनिन्दितम् ॥ २७*३ 1437 ) बालग्लानतपःक्षीणवृद्धव्याधिसमन्वितान् ।
मुनीनुपचरेनित्यं यथा ते स्युस्तपःक्षमाः ।। २७*४ प्रकारान्तरसे पुनरपि विवेचन किया जाता है -
अतिशय पुराना होने से जिसका वर्ण विकृत हो गया है, रस परिवर्तित हो गया है, जो धुन गया है, असात्मक है - दुःख को उत्पन्न करनेवाला है, प्रसृत (विस्तृत) है, तथा जिसके भक्षण से रोग उत्पन्न होने वाला है, ऐसा अन्न जब गृहस्थों के लिये योग्य नहीं है तब मुनियों के लिये तो वह सर्वथा ही योग्य नहीं है, ऐसा समझना चाहिये ॥ २७ ॥
जो अन्न जूठा हो, नीच लोगों के योग्य हो, अन्य के उद्देश से बनाया गया हो, निन्द्य हो, दुष्ट जनों से स्पृष्ट हो, तथा देव यक्षादिके लिये संकल्पित हो, ऐसे अन्न को मुनियों के लिये नहीं देना चाहिये ॥ २७* १ ॥
. जो अन्नादि अन्य ग्रामसे लाया गया हो, मंत्र के द्वारा लाया गया हो, भेंट किया गया हो, बाजार से खरीदकर लाया गया हो, प्रकृति के विरुद्ध हो, ओर ऋतु के प्रतिकूल हो, ऐसे अन्नादि को मुनियों के लिये देना योग्य नहीं है ॥ २७*२ ॥
- दही, घी, दूध से बनाया हुआ भक्ष्य पदार्थ पर्युषित - दूसरे दिन में भी प्रायः योग्यमाना गया है । इससे भिन्न जो भय पदार्थ गंध, वर्ण और रस से चलित हो गया हो वह सब निंद्य - पात्रदान के लिये अयोग्य - माना गया है ॥२७* ३ ॥
- जो मुनिजन बाल, रोगी, तपसे कृश, वृद्ध तथा रोग से पीडित हैं, उनको निरन्तर सेवा - वयावृत्य - करना चाहिये, जिससे वे तपश्चरणके लिये समर्थ हो सकें ।। २७*४ ॥
२७) 1 परकीयम्. 2 स्तोकम्. 3 PD°प्रमेयम्', D न देयं. 4 गृहस्थानाम् । २७*१) 1 योग्यम् । २७*२) 1 वायणी. 2 हट्टादानीतम्. 3 अयोग्य ऋतु, D ऋतुयोग्यं अ। २७*३) 1 घृत. 2 सेवनीयम् । २७१४) 1 मुनयः ।