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________________ -१८. २६] - उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1428 ) यद्दीयते किमपि कालबलं विविच्य पात्रस्य च प्रकृतिमप्यवगम्य देशम् । रत्नत्रयस्य परिव द्धिकरं च कल्प्यं विज्ञानमेतदनुजजु रनिन्द्यबोधाः ॥२२ 1429 ) यत्केवलीसंस्तवमन्त्रविद्याममत्वबुद्धयादिफलानपेक्ष्यम् । वितीर्यते' शासनवर्थनार्थमलुब्धतां तां परिपूर्ण यन्ति ।। २३ 1430) पात्रे क्रोशति शिक्षार्थमज्ञानाद्वापि हृष्टवत् । चाटुक्तिगर्भशान्तोक्तिर्या क्षमा सा प्रशस्यते ॥ २४ 1431 ) तूर्यांशो' वा षडंशो वा दशांशो वा निजार्थतः । दीयते या तु सा शक्तिवर्या मध्या कनीयसी ॥ २५ 1432 ) आत्मकष्टे ऽपि यत्तृप्तममृतैरिवमन्यते । पात्रोपकारतो दानं दातुः सत्त्वं तदुच्यते ॥ २६ काल के सामर्थ्य, पात्र की प्रकृति तथा देश के जलवायु का विचार कर रलत्रय की वद्धि के करनेवाला जो कुछ योग्य (निर्दोष होने से ग्राह्य) आहार पात्र को दिया जाता है उसेउस प्रकार के ज्ञान को – निर्दोष ज्ञानवाले ( गणधरादि) विज्ञानगुण कहते हैं ॥ २२ ॥ 'आप केवली हैं ' ऐसी स्तुति, मंत्र, विद्या और धनादिक में ममत्वबुद्धि, इत्यादि फलों को मन में अपेक्षा न कर के केवल जिनशासन बढाने के लिये जो पात्रको दान दिया जाता है उसको अलुब्धता गुण कहते हैं । इसे दाता पूर्ण करते हैं ॥ २३ ॥ पात्र यदि शिक्षा देने के लिये अथवा अज्ञान से कुछ भी कटु शब्द बोलता है किंवा अविवेकी के समान कटु शब्द बोलने लगे तो आनन्द से नम्रतापूर्वक जो शांतियुक्त भाषण किया जाता है इसका नाम क्षमा है । उसको सब हो प्रशंसा करते हैं ॥ २४ ॥ अपने धन में से - दैनिक आय में से -चतुर्थ, छठे अथवा दसवें भाग का जो सत्पात्र दानादि में सदुपयोग किया जाता है उसका नाम यथाक्रम से उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य शक्ति जानना चाहिये ॥ २५ ॥ पात्रदान से स्वयं को कष्ट के होनेपर भी उस से जो पात्र का उपकार होता हैं उससे दाता अपने को जो अमृत से तृप्त हुए के समान समझता है उसे सत्त्वगुण कहा जाता है॥२६॥ २२) 1 विचार्य. 2 D गणधरदेवाः कथयामासुः, प्रकाशयन्ति स्म । २३) 1 दीयते. 2 दूरीकुर्वन्ति । २५) 1 चतुर्थभागः. 2 उत्तमा. 3 मध्यमा. 4 जघन्या । ४६
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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