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________________ ३६० - धर्मरत्नाकरः - [१८. २०1425) सवैद्यमप्रतिहतं शुभनामगोत्रे तीर्थप्रवृत्तिचरितोचितधर्म एव । स्वर्गापवर्गसुखसिद्धिरपीति बुद्धिः श्रद्धाभ्यधायि कविकल्पविमुक्तिचित्ते ।। २० 1426 ) व्याकोशवारिजविकासिविलोचने यत् पीयूषपानबहुलोद्धषिताङ्गकं च । आराध्य सद्गुणभरग्रहणानतिर्यत् सा तुष्टिरित्यकथि पुण्यसुतोषपात्रम् ॥ २१ क्वचिद्भक्तिरिति पाठस्तत्रायं श्लोकः - 1427 ) लीये किमत्रं नु पिबामि विलोचनाभ्या मुत्तोषये कथमथो शिरसा वहामि । आनन्त्यतो गुणगणस्य कथं स्तुवे ऽहं चित्ते वितृप्तिरिति भक्तिरवादि पूज्ये ॥२१*१ द्रव्य विषयक जिन परोपकार आदि गुणों के समूहों से सुसंस्कृत होता है उनके अतिरिक्त अन्य गुणों के संबन्ध से उसके निर्बाध आस्तिक्य गुण रहता है ॥ १९ ॥ जिसका अन्तःकरणदुष्ट विकल्पों से रहित हो चुका है उसके तीर्थप्रवृत्ति व चारित्र के योग्य धर्म के होनेपर निर्बाधसातावेदनीय, तथा शुभ नाम व गोत्र कर्मों का बन्ध एवं स्वर्ग व अन्त में मुक्तिसुख को भी प्राप्ति होती है, इस प्रकार की जो दाता की बुद्धि हुआ करती है उसे श्रद्धा गुण कहा गया है ॥ २० ॥ प्रफुल्ल कमल के समान दोनों नेत्र, अमृत पान की अधिकतासे रोमांचयुक्त शरीर तथा आराधन के योग्य समीचीन गुणों के भारसे जो नम्रता-सत्पात्र के लिये आदर सूचक नमस्कार-होती है, यह तुष्टि नाभका गुण है । यह गुण पुण्य और सन्तोष का स्थान है ।।२१॥ इस तुष्टि के स्थान में क्वचित भक्ति पाठ पाया जाता है। वहाँ यह श्लोक है - क्या मैं इस आराध्य, पवित्र पात्र के विषय में लीन हो जाऊँ अथवा क्या अपनी आँखोंसे इसे पीता रहूँ- देखता ही रहूँ ? मैं इसे किस प्रकार से संतुष्ट करूँ अथवा मैं इसे शिर से धारण करता हूँ। इस आराध्य में अनन्त गुणों का समूह होने से इसकी मैं कैसे स्तुति कर सकता हूँ? इस तरह पूज्य पात्र के विषय में जो चित्त में विशेष तृप्ति होती है, उसे भक्ति कहते हैं ॥२१*१॥ २०) 1 D सातावेदनी. 2 द्वे। २१) 1 विकसितकमलम्.2D रोमाञ्चित । २१*१)1 किं लीनो भवामि, D लीनो भवामि. 2 पूज्ये. 3 D अहो, अथवा. 4D तुष्टो भवामि ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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