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-१८. १९] - उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1420 ) अभयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधम् ।
दानं मनीषिभिः प्रोक्तं शक्तिभक्तिसमाश्रयम् ॥१६*१ 1421 ) अभीतितो ऽनुत्तमरूपवत्त्वमाहारतो भोगविभूतिमत्त्वम् ।
भैषज्यतो रोगनिराकुलत्वं श्रुतादवश्यं श्रुतकेवलित्वम् ॥ १७ 1422) सर्वेषामेव दानानां स्वरूपं च फलं तथा ।
प्रभावश्च मया प्रोक्तो व्रतानिर्दिश्यते पुनः ॥ १८ 1423) श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिविज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः ।
यौते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥१८*१
पुनर्भङ्ग्यन्तरेण तत्र तत्र विज्ञानलक्षणमेवोत्पाद्यते - 1424 ) आत्मा परोपकरणप्रमुखैर्गुणौघै--
यत्पात्रदेयविषयैरधिवासनः स्यात् । आस्तिक्यमप्रतिहतं च तदन्ययोगै-- -
र्दानादिसेवनपरायणमानवस्य ॥ १९ नहीं होती है, उनके भला बहुत प्रकार की धर्मयुक्त क्रियाएँ, धवल कीति और सैकडों अन्य सुंदर कार्य भी कहाँ से हो सकते हैं ? ॥ १६ ॥
वह दान बुद्धिमान् महर्षियों के द्वारा अभय, आहार, औषध और शास्त्र के भेद से चार प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। उसे श्रावकों को अपनी शक्ति और भक्ति के आश्रय से देना चाहिये ॥ १६*१॥
अभयदान से अतिशय उत्तम रूप की प्राप्ति है, आहार दान से भोग और धनवैभव प्राप्त होता है, औषधदान से रोग से रहित होने से निराकुल भाव प्राप्त होता है और श्रुतज्ञान से श्रुत के बलिपना अवश्य प्राप्त होता है ।। १७ ।।
इस प्रकार से मैंने सब ही दानों के स्वरूप, फल और प्रभाव को कह दिया है। अतिथि संविभागवत का निर्देश किया जाता है ॥ १८ ॥
श्रद्धा, संतोष, भवित, विज्ञान लोभ से रहितता क्षमा और शक्ति ये सात गुण जिस दाता में हैं, उस दाता की प्रशंसा की जाती है ॥१८१ ।।
पुनः प्रकारान्तर से प्रत्येक गुण में विज्ञान लक्षण ही उत्पन्न किया जाता हैसत्पात्रदान आदि के आराधन में तत्पर रहने वाले श्रावक का आत्मा पात्र और देय
- १६*१) 1 विद्वद्भिः । १७) 1 अभयदानात् । १८*१) 1 D कथयन्ति । १९) 1 भेदान्तरेण. 2 P° उत्पद्यते।