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- धर्म रत्नाकरः -
1415 ) हिंसायाः पर्यायो लोभो ऽत्र निरस्यते यतो दाने । तस्मादतिथिवितरणं' हिंसाव्युपरमणमेवेष्टम् ।। १३*१ 1416 ) गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते ।
वितरति यो नातिथये स कथं न हिं लोभवान् भवति ॥ १३२ 1417 ) आत्मार्थमन्धः प्रतिसाधितं यद्ददामि तद्भावितदान इत्थम् । पापैर्विकल्पै रहितो ऽप्यरत्या भवत्यहिंसः श्लथलोभ एव ॥ १४ 1418 ) कृत्यं त्रिलोक्यैहिकमेव किंचित् किचिच्व दानं परलोकबुद्धया ।
औचित्यमालोचयतां च किचित् वित्तव्ययो ऽनेकविधः सतां हि ॥ १५ 1419 ) प्रेत्य प्रसाधनपरेषु समस्ति येषां न ह्येहिकेष्विव धनेषु समा मनीषा | धः क्रिया बहुविधाः सितकीर्तयो वा कृत्यानि वात्र शतधा कुत एव तेषाम् ॥ १६
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[१८. १३*१
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लोभ यह हिंसा की ही अवस्था है - उसके ही अन्तर्गत है । इसका विनाश चूंकि दान देने से होता है, इसीलिये अतिथि को आहारादि दान देना हिंसा से विरत होना ( अहिंसा व्रत) ही अभीष्ट है ।। १३*१ ॥ जो श्रावक घर पर आकर भ्रमर के समान व्यापार से जिस प्रकार भ्रमर किसी भी पुष्प को पीडा न देकर उनसे रस ग्रहण कर लेता है उसी प्रकार - दूसरों (गृहस्थों ) को पीडा न देकर आहार को ग्रहण करने वाले अतिथि रत्नत्रय सम्पन्न मुनि - के लिये आहारादि नहीं देता है उसे लोभयुक्त कैसे न समझा जाय ? ॥
१३*२ ॥
अपने ही निमित्त से भोजन तैयार किया गया है उसे मैं निःस्पृह साधु के लिये देता हूँ । इस प्रकार से जो श्रावक उस दान के विषय में विचार कर रहा है वह चूंकि पापविचारों एवं द्वेष बुद्धि से रहित होता है अतएव लोभ को मन्द करने वाला वह हिंसा से रहित ही ॥ १४ ॥
कुछ दान तो इस लोकसंबन्धी प्रयोजन को देखकर दिया जाता है, कुछ दान परभव की बुद्धि से दिया जाता है, और कुछ दान औचित्य का विचार करनेवाले सज्जनों को दिया जाता है । इस प्रकार सत्पुरुषों के धन का व्यय ( तीन ) प्रकार से हुआ करता है ।। १५ ।। जिस प्रकार मनुष्यों की बुद्धि इस लोकसंबन्धी प्रयोजन को सिद्ध करनेवाले धन के विषय में होती है, उस प्रकार जिनकी बुद्धि परलोक के साधने में समर्थ उस धन के विषय में
१३*१) 1 दानम्. 2 हिंसाविरमणं । १४ ) 1P अन्नम्, D आहारम् 2D क्षीणलोभः । १५ ) 1 D इहलोकसंबन्धि । १६ ) 1D परत्र ।