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________________ -१८. १३] - उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् - ३५७ . 1410) यथादेशं यथाकालं पवित्रावयवांशु कः । यहत्ते संयमात्यागी कायशुद्धिमता तु सा ॥ १०. 1411 ) यत्स्वकल्प्यमवगम्यते ऽगदं नित्यकर्मपरिवर्धनोचितम् । सात्म्यकं यदृतुयोग्यमाहृतं दातुरन्धस इयं विशुद्धता ॥ ११ 1412 ) ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिःकपटतानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वं निरहंकारित्वमिति हिँ दातृ गुणाः ॥ ११*१ 1413 ) द्वेषं तथा रागमसंयमं च मदं च दुःखं च भयादिकं च । दत्ते न यद्रव्यमदः प्रदेयं स्वाध्यायवृद्धथै तपसां समृद्धये ॥ १२ 1414 ) पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगो मुक्तिकारणगुणानाम् । सम्यग्दृष्टिविरतो विरताविरतस्तथाविरतः ॥ १३ देश और काल के अनुसार जिसके हाथ-पांव आदि अवयव शुद्ध हैं, जिसने पवित्र वस्त्र को धारण किया है तथा जो अपने संयम को नहीं छोडता हुआ पात्रा को दान देता है उसे कायशुद्धि समझना चाहिये ॥ १० ॥ जो अपने लिये कल्प्य हो - पात्रा के लिये ग्राह्य हो, स्वास्थ्यप्रद प्रतीत होता हो, नित्य कर्म - सामायिक व स्वाध्याय आदि - के बढाने में समर्थ हो, सात्म्यक - प्रकृति के लिये अनुकूल हो और ऋतु के भी अनुकूल हो ऐसे आहार का जो प्रदान करना है यह दाता की अन्धोविशुद्धि- एषणाशुद्धि – है ॥११॥ .. (१) दान देते समय इस से मुझे धनधान्यादि की प्राप्ति हो ऐसी मन में ऐहिक फलको इच्छा नहीं रखना (२) क्षमा भाव को धारण करना (३) कपट भाव को मन में स्थान न देना (४) दूसरों के दातृत्वादि गुणों को देखकर द्वेष न करना (५) आहार देते समय मन में खिन्नता का अनुभव न होना (६) मन का प्रसन्न होना (७ ) और मन में अभिमान का न होना ये दाता के सात गुण हैं ॥१११ ॥ श्रावक मुनि को ऐसा आहार दे जिससे उनके मन में द्वेष, रागभाव, असंयम, गर्व दुःख और भयादिक उत्पन्न न हों तथा जिस से स्वाध्याय और तपों की वृद्धि हो ॥१२॥ __जिस के मुक्ति के कारणभूत सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र गुणों का, संयोग है उसे पात्र कहते हैं। उसके तीन भेद हैं - विरत सम्यग्दृष्टि, विरताविरत और अविरत ॥ १३ ॥ ११) 1 D नीरोगतां. 20 कथितं. 3D आहारे। ११*१) 1 P°फलानपेक्ष्यम. 2 PD°षादित्वं दते. 3 P°मितोह दातृ । १२) 1 PD भयादिकं वा. 2 एतत् । १३) 1 PD युक्तिकारण ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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