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- धर्म रत्नाकरः -
1404 ) येत्माक् सुसंस्कृतं यच्च स्थानं पूर्णमनोरथम् यत्पात्रस्थापनं तस्मिन्नुच्चैः स्थानं तदुच्यते ॥ ४ 1405 ) यत्पादपद्मरजसापि धरास्ति तीर्थं तेषां जगन्न लिनबोधन भास्कराणाम् । यत्क्षालनं चरणयोरघजातहन्तृ पादोदकं शमयतान्मम तद्भवाग्निम् ॥ ५ 1406 ) प्रतिगृहीत पात्रस्य मन्त्र मुख्यैर्जलादिभिः ।
अष्टाभिः प्रार्चना या सा पूजा पूज्यैनिरुच्यते ।। ६ 1407 ) प्रमत्तादिगुणस्थानमुनिसंभावनाधिका ।
पात्रे ऽचिते नतिर्या तु स प्रणामो ऽभिधीयते ॥ ७ 1408 ) यद्दुश्चिन्तापरित्यागाद्गुणानुष्ठानपूर्वकम् ।
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पात्रदाने मनःस्वास्थ्यं सा मनः शुद्धिरुच्यते ॥ ८ 1409 ) अयोग्यवचनत्यागात् समाश्रितमनोहरा ।
पात्रदाने प्रियोक्तिर्या सा वचः शुद्धिरिष्यते ॥ ९
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जिसको पहले से ही स्वच्छ और सुशोभित कर रखा है तथा जो मनोरथ को पूर्ण करने वाला है ऐसे आसन पर पात्र को जो स्थापित करना इसे उच्चैःस्थान कहते हैं ॥ ४ ॥ जिनके चरण कमलों की पराग से भी यह पृथ्वी तीर्थ हो जाती है तथा जो जगत के
भव्य जीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये सूर्य के समान हैं उन मुनियों के दोनों चरणों का जो पापसमूह को नष्ट करनेवाला प्रक्षालन किया जाता है उसे पादोदक कहते हैं । वह पादोदक मेरी संसाराग्नि को जन्म मरण के संताप को शांत करें ॥ ५ ॥
उपर्युक्त विधि से स्थापित पात्र की मन्त्रोच्चारणपूर्वक जो जल- चन्दनादि आठ द्रव्यों से अर्चा की जाती है उसे पूज्य ऋषि महर्षियोंने पूजा कहा है ॥ ६ ॥
आठ द्रव्यों से पूजित पात्र के विषय में प्रमत्तादि गुणस्थानों की संभावना से अधिक आदर के साथ जो नमस्कार किया जाता है उसे प्रणाम कहा जाता है ॥ ७ ॥
दुष्ट चिन्तन - दुर्ध्यान - का त्याग कर के गुणों के आचरण के साथ पात्रदान में जो मनको प्रसन्नता होती है वह मनःशुद्धि कही जाती है ॥ ८ ॥
पात्रदान के समय अयोग्य वचनों का त्याग कर के मनोहर अवस्था को प्राप्त जिस प्रिय भाषा का उपयोग किया जाता है उसका नाम वचनशुद्धि है ॥ ९॥
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४) 1 येषाम् । ५ ) 1 P° तत्क्षालनम् ।