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________________ [१८. अष्टादशो ऽवसरः] [उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् ] 1401 ) यथाविधानं गुणिना प्रदेयं यथागमं कालमवेत्य देशम् । पात्राय दानं स्वपरोपकारसंपादकं नित्यमतन्द्रितेन ॥ १ 1402) प्रतिग्रहोच्चासनपादपूजाप्रणामवाक्कायमनःप्रसादाः । विधाय शुद्धिश्चं नवोपचाराः कार्या यतीनां गृहमेधिनेति ॥२ 1403) आगच्छत्पात्रमालोक्य वदान्यो यत्र तत्र यत् । जिनवत्प्रतिगृह्णाति स प्रतिग्रह उच्यते ॥३ गुणी श्रावक को आगम के अनुसार देश और काल को देखकर आलस्य से रहित हो। विधिपूर्वक सदा पात्र के लिये दान देना चाहिये । यह दान स्व – दाता - और पात्र दोनों का ही उपकार करने वाला है ॥ १ ॥ प्रतिग्रह (पडगाहन), उच्चासन, पादोदक, पादपूजा, प्रणाम, वचन को प्रसन्नता (शुद्धि), शरीरको प्रसन्नता, मनकी प्रसन्नता और आहार की शुद्धता यह नौ प्रकार की विशुद्धि अर्थात् आदरके प्रकार हैं । इनको नवोपचार भी कहते हैं। गृहस्थ को मुनियों का इस प्रकार से आदर करना चाहिये ॥ २ ॥ दाता जिस विधि में आते हुए पात्र को देखकर उसे जिनेश्वर के समान स्वीकारता है अर्थात् उसे ‘तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ,' ऐसा तीनवार बोलकर स्वागत करता है उसे प्रतिग्रह कहते हैं ॥ ३ ॥ . २) 1 D कृत्वा. 2 एषणाशुद्धिः । ३) 1 दानदक्षः, D श्रावकः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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