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- -धर्मरत्नाकरः -
[१७. ४४___1399 ) पूर्ववतानि सकलानि विभषितानि
पात्यतया प्रतिमया य इहोत्तमो ऽसौ । मध्यो व्रतानि विशदानि कथंचिदेता
मेतद्वयं शबलितं कथितः कनिष्ठः ॥ ४४ 1400) पञ्च प्रथा समनयन्तु सचित्तमुक्ति
मुख्यां गृहाश्रमवतां प्रतिमां दुरापाम् । भोगोपभोगनियमानतिरिक्तदेहाः
संभावयन्तु जयसेननुतां विमुक्तिम् ॥ ४५ इति धर्मरत्नाकरे शिक्षानतान्तर्गतस-चित्तादि-पञ्चमप्रतिमाप्रपञ्चनः
सप्तदशमी (दशो) ऽवसरः ॥ १७ ॥
जो इस परिग्रहत्यागप्रतिमा से सुशोभित सब ही पूर्वोक्त व्रतों का पालन करता है वह यहाँ उत्तम परिग्रहत्यागी माना गया है । मध्यम परिग्रहत्यागी वह है जो कथंचित् इन बतों का पालन करता हुआ प्रकृत प्रतिमा का पालन करता है । तथा जिस के ये- पूर्ववत और यह प्रतिमा-दोनों सदोष होते हैं उसे जघन्य समझना चाहिये ॥ ४४ ॥
भोगोपभोग पदार्थों के नियम को धारण करनेवाले गृहस्थ जो सचित्त त्यागादि पाँचप्रतिमायें गृहाश्रमवालों के लिये दुर्लभ हैं, उनका निर्दोष रूपसे पालन करते हैं (अर्थात् सचित्त त्याग, दिवाब्रह्मचर्य, पूर्णब्रह्मचर्य आरम्भत्याग और परिग्रहत्याग इन पाँच प्रतिमाओं को वृद्धिगत करते हैं), वे श्रावक जयसेन आचार्य के द्वारा प्रशंसित विमुक्तिका आदर करते हैं, अर्थात् वे मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥४५॥
इस प्रकार धर्मरत्नाकर में शिक्षावत के अन्तर्गत सचित्तादि पाँच प्रतिमाओं का सविस्तर वर्णन करनेवाला सत्रहवाँ अवसर समाप्त हुआ ॥१७।।
1 प्रतिमाम. 2 भोगोपभोगनियमादत्यक्तो [दनतिरिक्तो] देहो येषां ते भोगोपभोगानति
रितिदेहाः ।।