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________________ ३५३ -१७. ४३] • सचित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1396) मूर्धाभिषिक्ताश्च निजीस्त्वनेकमलिम्लुचायाश्च बहुप्रकाराः । गृद्धाः परेऽप्यर्थवतीव सिद्धं यत्रामिषं तत्र खगाः पतन्ति ॥ ४१ 1397 ) यत्रोपतप्तिमुपयाति गते न चात्मा षट्कर्मवर्धनपरं न परिग्रहः स्वम् । यत्स्वस्थितरुपचयाय च तत्परं य न्मुञ्चन्नशेषमपरिग्रहगेहिधुर्यः ॥ ४२ 1398 ) साक्षादुच्छ्वसतीव संयमतनिर्भीततारोहती-- वोल्लासं व्रजतीव शान्तपदवी शुद्धि दधातीव च । धर्मः शर्मकरः समस्तविषयव्यामुग्धता मूर्च्छतीवासंगे लसतीव लाघवगुणः स्वायत्तता क्रीडति ॥ ४३ जिस के पास धन-परिग्रह-है उस के ऊपर मूर्धाभिषिक्त - राजा, कुटुंबीजन, अनेक चोर आदि तथा अन्य भी अनेक लोग लुब्ध हो कर टूट पड़ते हैं। सो ठीक है - जहाँ मांस होता है वहाँ गीध आदि पक्षी आकर गिरते ही हैं ॥४१॥ जिस स्वके-द्रव्य के नष्ट हो जानेपर आत्मा संताप को प्राप्त नहीं होता है, जो श्रावक के छह आवश्यक कर्मोको वृद्धिंगत करनेवाला है, तथा जो आत्मा के स्वास्थ्य की वृद्धि का कारण है; उस द्रव्य को वस्तुतः परिग्रह नहीं समझना चाहिये । इससे भिन्न द्रव्य का जो परित्याग करता है वह परिग्रहत्यागी गृहस्थों में श्रेष्ठ समझा जाता है ॥४२॥ अपरिग्रह की दृढता हो जाने पर संयमवृक्ष मानो पल्लवित होता है, निर्भयपना मानो बढ जाता है, शान्ति मानो प्रमुदित होती है, सुखदायी धर्म मानो शुद्धि को धारण करता है, समस्त विषयों में उत्पन्न हुआ मोह दूर हो जाता है, लाघव (विनय ) उत्पन्न होता है और स्वाधीनता क्रीडा करती है ।।४३॥ ४१) 1 राजानः. 2 कुटुम्बादयः. 3 PD चौराद्याः. 4 D लम्पटाः भवन्ति. 5 D पक्षिणः । ४२) 1D द्रव्ये. 2 D आत्मस्वस्थतावर्धनाय यत् तस्मात् परं यत् परिग्रहे अशेषं मुञ्चन् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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