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- १८. ३०.१] -उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
३६३ 1438 ) शाठ्यं च गर्व च जलप्लुतत्वमवज्ञतां वाक्परुषत्वमन्यत् ।
असंयम वर्जयताद्विशेषाद्भुक्तिक्षणे ऽक्षुण्णतया मुनीनाम् ॥ २८ 1439 ) असंमताभक्तकदर्य मर्त्यकारुण्यदैन्यातिशयान्वितानाम् ।
एषां निवासेषु हि साधुवर्गः परानुकम्पाहितधीन भुङ्क्ते ॥ २९ 1440 ) उक्तंच--
नाहरन्ति महासत्त्वाश्चित्तेनाप्यनुकम्पनाः ।
कि तु ते दैन्यकारुण्यसंकल्पोज्झितवृत्तयः ॥ २९*१ 1441 ) स्वामिधर्मसमुपासनस्थितौ पुत्रजन्मनि सचेतनो भवन् ।
देवकार्यवशतो ऽन्यदा सदा संदिशेत्कथमिवापरं जनम् ॥ ३० 1442 ) आत्मवित्तपरित्यागात्परैर्धर्मविधापने ।
निःसंदेहमवाप्नोति परभोगाय तत्फलम् ॥ ३०*१
कपट, गर्व, चंचलपना, तिरस्कार, कठोर भाषण, असंयम तथा अन्य अयोग्य प्रवृत्ति, इन सबका सदाही त्याग करना चाहिये । विशेषतया मुनियों के भोजन के समय में तो उनको पूर्णतया श्रावक को छोड देना चाहिये ॥ २८॥
दूसरों की दया में दत्तचित्त साधुसमूह असंमत -- जातीय बन्धुओं के द्वारा बहिष्कृतभक्ति से रहित, कृपण मनुष्य, तथा दया व दीनता की अधिकता को प्रकट करनेवाले मनुष्यों के निवासस्थान में भोजन नहीं किया करता है ॥ २९ ।।
कहा भी है -
दयालु पराक्रमी, साधु पूर्वोक्त मनुष्यों के घर पर मन से भी आहार नहीं करते हैं। (आहार ग्रहण करना तो दूर रहा, किन्तु वे उसका विचार भी नहीं करते हैं)। फिर भी उनकी प्रवृत्ति दीनता, दया और संकल्प से रहित होती है ॥ २९*१ ॥
__ मनुष्य सचेतन - बुद्धिमान् - होकर स्वामिसेवा, धर्माराधना और पुत्रोत्पत्ति में देव और कार्य की परवशता को छोडकर अन्य समय में सदा इतर मनुष्य को कैसे संदेश दे सकता है ? (अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य ऐसा नहीं करेगा) ( ? ) ॥ ३०॥
अपने धन के व्यय से दूसरों से धर्म कराने पर मनुष्य निश्चित ही दूसरों के भोग के लिये उसके फल को प्राप्त करता है ॥ ३०*१ ॥
२८) 1 स्नानम् । २९) 1 D पंचप्रवाणरहित. 2 D कृपणता । २९*१)1 D°कम्पताः। ३०*१) 10 °आत्मचित्त।