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- धर्मरत्नाकरः -
इस लाडवागड संघ के संबन्ध में काफी जानकारी प्राप्त होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसने अपने को पुन्नाट गण या गच्छ या संघ में मिला लिया था । इस संघ के प्रसिद्ध प्राचीन आचार्य थे जिनसेन, जिन्होंने ७८३ इ. में हरिवंश पुराण रचा। दूसरे थे हरिषेण, जिन्होंने ९३२ - ९३३ में बृहत्कथाकोश रचा। तीसरे थे महासेन, जिन्होंने प्रद्युम्नचरित रचा । महासेन, मुंजराज और सिन्धुराज के समकालीन थें। और सिन्धुराज के मन्त्री परपट से समादृत हुए थे ।
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यह लाडवागड संघ काष्ठासंघ से भी संबद्ध है किन्तु यापनीय संघ के साथ इसका संबन्ध प्रमाणित नहीं होता। क्योंकि पुन्नाट और पुन्नाग का एक अर्थ नहीं है । इस संघ के आचार्यों की पट्टावलि में उनके समकालीन शासकों का विवरण मिलता है। इस संघ के एक अति प्राचीन आचार्य दिगम्बर कहे जाते | किन्तु बाद 'कुछ संभवतया भट्टारक 1
जयसेन नाम के कुछ अन्य भी आचार्य हुए हैं ।
१. एक जयसेन धर्मघोष के गुरु थे । प्रथम शताब्दी इ. के मथुरा के शिलालेख में इनका उल्लेख है ।
२. जिनसेन ने अपने महापुराण (ल. ८३८ इ. ) में अपने गुरु जयसेन का निर्देश
किया है।
३. जिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण में अपने पुन्नाट संघ के पूर्वजों की एक लम्बी सूची दी है उनमें एक जयसेन उनके प्रगुरु हैं ।
४. एक जयसेन ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर टीका रची है । मैंने प्रवचनसार की प्रस्तावना में उनपर विचार किया है। उनका समय ११५० इ. के बाद है ।
५. प्रद्युम्नचरित के कर्ता महासेन लाडवागड संघ के थे, उन्होंने अपने प्रगुरु का नाम जयसेन लिखा है । यदि इनको धर्मरत्नाकर का रचयिता मानने का भाव हो, तो वह कोई अनुचित नहीं है ।
६. एक प्रतिष्ठापाठ के रचयिता भी जयसेन हैं जिनका उपनाम वसुबिन्दु है | वे अपने को कुन्दकुन्द का अग्रशिष्य कहते हैं ।
नरेन्द्रसेन ने अपने सिद्धान्तसार संग्रह के अन्त में एक विस्तृत प्रशस्ति दी है । यह प्रशस्ति धर्मरत्नाकर को प्रशस्ति से बहुत मेल खाती है। दोनों में कुछ पद्य भी समान हैं । इसमें भी लाडवाड संघ का मूल भगवान् महावीर के गणधर मेतार्य को बतलाया है । फिर दिगम्बर धर्मसेन का नाम आता है । धर्मसेन के शिष्य शान्तिषेण, उनके गोपसेन, उनके भावसेन और उनके जयसेन हुए । यही जयसेन धर्मरत्नाकर के कर्ता हैं । जयसेन के पट्टपर क्रम से ब्रह्मसेन वीरसेन और गुणसेन हुए । गुणसेन के शिष्य नरेन्द्रसेन थे ।