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अवसर सल्लेखना से संबद्ध है और अन्तिम अवसर में विविध विषय हैं जिन में ऐसे भी विषय हैं जो पूर्व में चर्चित हो चुके हैं । १५ वें अवसर में शिक्षाव्रतों का कथन चालू रहना चाहिये था किन्तु उसमें सामायिक प्रतिमा को ले लिया गया है ।
हिन्दी सार -
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किन्तु ग्रन्थ में दिये संस्कृत प्राकृत उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकार का अध्यन विस्तृत है | कुछ उद्धरणों में पुनरुक्ति भी की गयो है । ग्रन्थकार का विशेष झुकाव चर
योग की ओर है । प्रथमानुयोग पर भी उनका विशेष अधिकार है । उन्होंने उदाहरण के रूप में अनेक कथाओं का निर्देश किया है, जो पुराणों और कथाकोशों में मिल सकती हैं । उनका विवेचनात्मक अध्ययन एक सुखद विषय हो सकता है । उन्हें भारतीय पुराणों का भी पर्याप्त ज्ञान है। मंत्र, रसायन, वेदान्त आदि से भी वह परिचित हैं ।
कवित्व की दृष्टि से भी जयसेन उल्लेखनीय हैं । उनका संस्कृत पर तो अधिकार है ही, कुछ प्राकृत पद्यों की भी रचना उन्होंने की है । यद्यपि वह प्रधान रूप से एक धर्मोपदेष्टा और धर्मशिक्षक है तथापि उनकी रचना में काव्यसौन्दर्य है । उनकी कुछ उपमाएं हृदय को छूती हैं। (देखो पद्य - २१५, २८३, ३३९, ३५३, ६४१, ६८२, तत्र अनुप्रास की छटा भो दृष्टिगोचर होती है । (१५५, १६५, १८५ आदि । ) कुछ पद्य संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थों का स्मरण कराते हैं । कुछ पद्य शब्दलालित्य को दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार अर्धमागधी में रचित कुछ आगमों से भी परिचित थे ।
९०२,९८० आदि । ) यत्र
५. ग्रन्थकार जयसेन
पद्य इस प्रकार है -
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अन्तिम संधियों में ग्रन्थकारने श्री, सूरि, मुनि के विशेषण के साथ अपना नाम जयसेन दिया है । वह अपनी गुरुपरम्परा मेदार्य या मेतार्थ से जोडते हैं जो भगवान् महावीर के गणधर थे । वे उत्कृष्ट तपस्वी थे । उन्होंने अपनी आत्मिक शक्ति से श्रीखण्डिल ग्राम की जनता को प्रभावित किया था । उनसे लाडवागड संघ उत्पन्न हुआ । इसी संघ में धर्मसेन हुए । उनके पश्चात् शान्तिषेण हुए । उनके पश्चात् गोपसेन और उनके पश्चात् भावसेन हुए । भावसेन के शिष्य जयसेन थे । उन्होंने धर्मरत्नाकर रचा । इस प्रकार जयसेन लाडवागड संघ के थे और उनके पूर्वज क्रमसे भावसेन, गोपसेन, शान्तिषेण और धर्मसेन थे । पं. परमानन्द शास्त्री ने लिखा है कि ब्यावर की प्रति में एक अतिरिक्त पद्य है जिसमें रचना का समय और स्थान दिया है ।
बाणेन्द्रियव्योमसोममिते संवत्सरे शुभे ।
ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यातः सब ( क ) लीकरहाटके ॥
इसका अर्थ है कि यह ग्रन्थ संवत् १०५५ ( ९९८ इ. ) में रचा गया। कुछ सकली पढते हैं और कुछ सबली । यह कौन स्थान था यह अन्वेषणीय है ।