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- धमलाकर - चाहिये । ऐसा करने से आरम्भ से बचाव होता है। फिर परिग्रह का भी त्याग कर देना चाहिये। वही दुःख का कारण है। १८. अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग
- अपने उद्देश से बनाये गये भोजन के त्याग को उद्दिष्टत्याग कहते हैं । इस अवसर में ग्रन्थकार ने मुनिदान का वर्णन विस्तार से किया है। १९. सल्लेखना
भगवती आराधना में कहे अनुसार श्रावक को सल्लेखना धारण करनी चाहिये । सल्लेखना आत्मघात नहीं है, क्योंकि जब मरण निश्चित हो जाता है, तभी सल्लेखना धारण को जाती है । आत्मघात तो मनुष्य क्रोधादि के वशीभूत होकर करता है । अपने परिवार से सब प्रकार का रागादिभाव हटाकर ही सल्लेखना धारण करनी चाहिये। अचानक मृत्यु होने पर सल्लेखना धारण करना सम्भव नहीं होता। सल्लेखना के भी पाँच अतिचार हैं। इस प्रकरण में बारह भावनाओं का भी वर्णन है । २०. विविध विषय
इस अन्तिम अध्याय में विभिन्न विषयों का वर्णन है । यथा-अंगप्रविष्ट और प्रकीर्णक का वर्णन है । धर्मात्मा श्रावकों पर ही धर्मसंस्था निर्भर होती है । अतः श्रावक के षट्कर्मों के वर्णन में स्वाध्याय, तप, संयम आदि का वर्णन करते हुए गुप्ति और कषायजय का कथन है। श्रावक को चार प्रकार की भिक्षा देना चाहिये । तथा रत्नत्रय का पालन करना चाहिये जो उसे मोक्ष की ओर ले जाता है । अन्त में ग्रन्थकार ने अपना परिचय दिया है।
४. धर्मरत्नाकर के स्वरूप विषय और कवित्व का विवेचन
धर्मरत्नाकर बीस अवसरों में विभाजित है । प्रत्येक अवसर को उचित शीर्षक दिया गया है । समस्त ग्रन्थ में विभिन्न छन्दों में १६५३ पद्य हैं । इसके अतिरिक्त ग्रन्थकारप्रशस्ति के आठ श्लोक हैं । इनमें से कुछ ग्रन्थकारद्वारा रचित हैं और बहुत से अन्य ग्रन्थों से उद्धृत हैं। इसके अवलोकन से स्पष्ट होता है की, जयसेन ने धार्मिक और नैतिक विविध विषयों का अच्छा संकलन इस ग्रन्थ में किया है । दान, शील, तप और भावना के विवेचन से ग्रन्थ का आरम्भ करते हुए ग्रन्थकार ने एक उत्साही धर्मगुरु और मेधावी कवि के रूप में अपने मन्तव्यों की व्याख्या की है । उनकी यह रचना एक क्रमबद्ध विषयवार विभाग के रूप में न होकर एक धार्मिक और नैतिक पद्यों का संकलन जैसी है । यद्यपि अवसरों में यहाँ वहाँ सुनिश्चित विषय मिलते हैं किन्तु बीच बीच में पुनरुक्तियों की भी कमी नहीं है । प्रथम आठ अवसरों में दान का वर्णन कर के ग्रन्थकार ने शील का वर्णन किया है। उसीके अन्तर्गत ९-१० में सम्यक्त्व का वर्णन है। उसके बाद प्रतिमाओं का वर्णन है । किन्तु विभिन्न प्रतिमाओं का वर्णन समान नहीं हैं । कभी कभी तो प्रमुख विषय गौण हो गया है। प्रतिमाओं के वर्णन के पश्चात् १९ वाँ