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- हिन्दी सार
२७ विषय भोग भी अधर्म है और हिंसा का जनक है । श्रावक को अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों को माता और बहन के समान मानना चाहिये । ऐसा खान-पान नहीं करना चाहिये जो इन्द्रियमदकारक हो । स्वस्त्री में भी अधिक विषयभोग नहीं करना चाहिये। ब्रह्माणुव्रत के भी पाँच अतिचार हैं। कडारपिंग ने परस्त्री के कारण बहुत अपमान सहा । महाभारत और रामायण के युद्ध स्त्री के ही कारण हुए। दो भाई अपनी ही बहनपर आसक्त हो गये थे ये उदाहरण हमें शिक्षा देते हैं कि विषयभोगसे बचना चाहिये । चौदह प्रकार की अन्तरंग और दस प्रकार को बहिरंग परिग्रह से बचना चाहिये । परिग्रह का त्याग अहिंसा का पोषक है। मूर्छा के अनेक प्रकार हैं। गृहस्थ को परिग्रह का परिमाण करना चाहिये । और उतना ही न्यायपूर्वक कमाना चाहिये, जितना जीवननिर्वाह के लिये आवश्यक हो । अपनी अधिक सम्पत्ति उनको दे देना चाहिये जो उसके पात्र हों । जब शरीर ही अपना साथ छोड़ देता है, तब अन्य सम्पदा की तो बात ही क्या है ? जो लालच से दूर है वह परमादरणीय है । लालच बुराई की जड है । द्वितीय प्रतिमा में इन पाँच अणुव्रतों का पालन किया जाता है। इनके सिवाय तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत भी पालनीय हैं । प्रत्येक के पाँच पाँच अतिचार हैं। १५. तीसरी प्रतिमा-सामायिक
देवपूजा, स्तुति, जप आदि सामायिक के अंग हैं । गृहस्थ के दो धर्म हैं । लौकिक और पारलौकिक । इन सब का वर्णन इस अध्याय में किया है । पूजा के पश्चात् महामन्त्र का जप करना चाहिये । पूजन के अन्त में पुष्पाञ्जलि के पश्चात् विसर्जन करना चाहिये । यद्यपि अर्हन्त वीतराग है, तथापि उनके ध्यान से बहुत लाभ होता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से युक्त आत्मा समय है और समय ही सामायिक है । प्रातः और सायं सामायिक अवश्य करना चाहिये । किन्तु अन्य समय में भी करना चाहे तो कर सकते हैं । सामायिक के भी पाँच अतिचार हैं । इस प्रतिमा में सामायिक का बहुत महत्त्व है। १६. चतुर्थ प्रोषधप्रतिमा
इन्द्रियों को अपने अपने विषयों से निवृत्त करने के लिये चारों प्रकार के आहार के त्याग को उपवास कहते हैं । यह प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को करना चाहिये । इसकी विधि का वर्णन करते हुए कहा है कि, आरम्भ का त्याग कर के एकान्तवास करना चाहिये । जो उपवास करने में असमर्थ हैं वे एकवार भोजन करते हैं। धनश्री, कमलश्री, रोहिणी आदि ने कल्याण, चान्द्रायण, आचाम्लवर्धन, श्रुतसागर, चक्रवाल, पञ्चमी आदि उपवास किये थे । छह प्रकार के बाह्य और छह प्रकार के आभ्यन्तर तप का भी वर्णन है। १७. सचित्तादि प्रतिमा का वर्णन
श्रावक को नियम या यम रूप से सचित्त का त्यागी होना चाहिये । छठी प्रतिमावाले को दिन में स्त्री सेवन से विरत रहना चाहिये । सातवीं प्रतिमावाले को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये । आरम्भत्यागी को अपने पुत्रों पर घर का भार सौंपकर उदासीनतापूर्वक. घर में रहना