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________________ .२६ - धर्मरलाकरःरहित सम्यक्त्व होना चाहिये । मिथ्यात्व ही सब अनर्थों की जड है और वह पाँच या सात प्रकारकी कही है । चन्द्रमती, यशोधर, सुभौम आदि विभिन्न मिथ्यात्व के उदाहरण हैं। १०. सम्यक्त्व के अंग सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का आधार सम्यक दर्शन है, इस के दो भेद हैं। निसगंज और अधिगमज । इसकी उत्पत्ति के अन्तरंग और बहिरंग अनेक कारण हैं । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य से सम्यक्त्व की पहचान होती है । राजा श्रेणिक, रेवती रानी, भरत आदि सम्यग्दष्टियों के उदाहरण हैं। निःशङिकत अंग का पालन करनेवाले अंजनचोर और वज्रायुध थे। निःकांक्षित अंग के उदाहरण अनन्त मती,श्रीविजय और अमिततेज थे। इसी तरह आठों अंगों में प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन है । सम्यक्त्व का धारी श्रीषेण की तरह मुक्ति प्राप्त करता है। '११. पहली प्रतिमा यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ, होते हैं तथापि सम्यग्दर्शन से सम्यरज्ञान भिन्न है । उस के दो भेद हैं । परोक्ष और प्रत्यक्ष । मति, श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं । इन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के होनेपर हो सम्यक्चारित्र होता है। उसके लिये गृहस्थ को मद्य, मांस, मधु, मक्खन, उदुम्बर फल, रात्रिभोजन, भांग वादि का त्याग करना चाहिये । श्राद्ध में मांस का प्रयोग नहीं करना चाहिये । जो मद्यादिक का सेवन करते हैं उनमें दया नहीं होती । इनमें उसी रंग के सूक्ष्म जन्तु होते हैं। जो उनका सेवन करते ही मर जाते हैं । जो इनका सेवन करते हैं उनकी संगति भी नहीं करना चाहिये। पहली प्रतिमा का धारी श्रावक सम्यक्त्व के साथ आठ मूल गुणों का धारी होता है और व्यसनों का सेवन नहीं करता। १२-१४. दूसरी प्रतिमा - इस प्रतिमा में पाँच अणुव्रतों की प्रधानता है । अहिंसाणुव्रती त्रस जीवों को हिंसा का त्याग करता है। वास्तव में तो रागादि की उत्पत्ति ही हिंसा है और उनका न होना ही अहिंसा है। अहिंसा के अनेक प्रकार हैं । अहिंसक को मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिये । अशुभ से शुभ श्रेष्ठ है। अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार है। सब व्रतों में अहिंसा ही प्रधान है, अन्य व्रत इसी की पुष्टि के लिये हैं । असत्य के चार भेद हैं। गर्हित, अवद्य, अप्रिय, आदि । सत्यवचन के दस प्रकार हैं । जिस सत्यवचन से दूसरों को कष्ट पहुंचे वह भी नहीं बोलना चाहिये । सत्यव्रत के भी पाँच अतिचार हैं। . सर्वसाधारण के लिये ग्राह्य जल, मिट्टो आदि को छोडकर पराई वस्तु को चुराने के भाव से ग्रहण करना चोरी है, उसका त्याग तीसरा अणुव्रत है । पराई वस्तु गिरी पडी हो तब भी उसे नहीं उठाना चाहिये । और न उठाकर दूसरे को देना चाहिये । चोर को राजा भी दण्ड देता है । अपने सम्बन्धियों का धन भी विना दिये नहीं लेना चाहिये। इसके भी पाँच अतिचार हैं।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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