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-हिन्दी सास
५. न और उसका फल
यदि कोई स्वार्थी दान देने में रुकावट डालता हो तो उसकी उपेक्षा करनी चाहिये । दान से आरंभी हिंसा का परिहार होता है । दीक्षा लेते समय तीर्थकरों ने भी दान दिया था। श्रावक के चार कर्तव्यों में दान प्रमुख है । श्रावक को देव और गुरु की द्रव्यपूजा भी करनी चाहिये । यद्यपि इसमें किंचित् आरम्भ होता है, किन्तु यह आरम्भ पाप को दूर करता है, और पुण्य का संचय करता है । साधुओं को आहारदान देने से दोषों की विशुद्धि होती है। कृष्ण, रुक्मिणी, नन्दिसेन और रेवती ने साधुओं की सहायता की थी। चेलना की साधुसेवा तो प्रसिद्ध है । राम, लक्ष्मण और सीता ने गुप्त और सुगुप्त मुनि को तथा देशभूषण, कुलभूषण की सहायता की थी। किसी भी तरह साधु को आहार आदि अवश्य देना चाहिये । यह उसकी उदारता का प्रमाण है। आज के समय में पात्र और अपात्र की परीक्षापर विशेष जोर नहीं देना चाहिये । दान देना गृहस्थ का सर्वोच्च कर्तव्य है और वह विना किसी इच्छा के देना चाहिये। ६-७. शानदान और उसका फल
___ ज्ञानदान सब दानों में श्रेष्ठ है । जो ज्ञानदान देता है वह सबसे महान् विश्वप्रेमी है क्यों कि ज्ञान प्रत्येक दृष्टि से अनुपम है। जिन शास्त्रों में जिनवाणी निबद्ध है, उन्हें पढन्स या सुनना चाहिये । उससे मनुष्य को यथार्थ दृष्टि की प्राप्ति होती है और वह अपने को पसे उत्तम सिद्ध कर सकता है । अत: उत्तम गुरुओं से उचित रीति से ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । गुरु का उपकार भुलाया नहीं जा सकता, न उसका कोई प्रतिदान ही हो सकता है। जिनदेव के वचन ही परमागम है, क्योंकि वह राग, द्वेष, मोह से रहित है। वेदों की प्रामाणिकता की बात मिथ्या है । सर्वज्ञ जिन हो सच्चे गुरु हैं । उन्होंने अनेकान्त दर्शन और अहिंसा का उपदेश दिया है । अनेकान्त के द्वाराही प्रत्येक वस्तु को यथार्थ रूप में कहा जा सकता है तथा जाना जा सकता है। अपने कर्मानुसार ही फलप्राप्ति होती है । और ज्ञान के द्वारा ही कर्मों को नष्ट किया जा सकता है । ८. औषधदान और उसका फल
औषधदान भी अन्य दानों के समान आवश्यक है । संघ को स्वस्थ होना चाहिये । स्वस्थ संघही धर्माचरण सम्यक् रीतिसे कर सकता है । रोगी शरीर के लिये औषधी आवश्यक है। अतः श्रावक को औषधदान भी करना चाहिये। ९. सम्यक्त्व की उत्पत्ति
धर्म के दो भेद हैं । मुनिधर्म और श्रावकधर्म । मुनि पञ्च महाव्रतों का पालन करते हैं और श्रावक पांच अणुव्रतों का पालन करते हुए गृहस्थाश्रम में रहते हैं। इन दोनों ही धर्मों का मूल सम्यग्दर्शन है । सम्यक्त्व से मतलब है जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थों में मूढता आदि दोषों से रहित श्रद्धा । तीन मूढता, छह अनायतन, आठ मद, आठ शंकादि दोषों से