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धर्म रत्नाकरः
३. विषयविवेचन
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१. पुण्य और पाप का फल
ग्रन्थ आदि में धर्म का महत्त्व बतलाते हुए ग्रन्थकारने कहा है- धर्म से वह सब प्राप्त होता है, जो महान् और परम आदरणीय है किन्तु जो धर्म अथवा पुण्य से हीन होता है, वह दुःखका भागी होता है । सुखी गृहस्थाश्रम पुण्य से प्राप्त होता है किन्तु उसके अभाव में गृहस्थजीवन दुःखदायी बन जाता है । उत्तम घर, उत्तम भोजन, बहुमूल्य वस्त्राभरण, सुगंधित जल से स्नान आदि पुण्य से प्राप्त होते हैं । किन्तु उसके अभाव में गन्दी झोपडी, रूखा-सूखा भोजन, दरिद्रता आदि मिलते हैं। धर्म के ही प्रभाव से इन्द्र तथा सर्वार्थसिद्धि के देव सुख भोगते हैं किन्तु अन्त में सभी कर्मों के विनाश से मोक्ष प्राप्त होता है ।
२. अभयदान का फल
अभयदान का फल बतलाते हुए कहा है - सब जीवों पर दयाभाव सभी को करना चाहिये। दूसरों की सहायता करना सब का कर्तव्य है । जो दूसरे प्राणियों के जीवन की सुरक्षा प्रदान नहीं करता वह धर्म नाम से कहे जाने योग्य नहीं है । दया या अभयदान धर्म का सार है । जीवन सब को प्रिय है और उसीकी सुरक्षा के लिये बारह व्रतादि कहे हैं। यदि जीवन ही चला गया तो रहा क्या ? अत: अहिंसा अथवा अभय प्रमुख है । उस के अभ्यास से सर्वोच्च पद प्राप्त होता है ।
सब
३. आहारवान आदि का फल
आहार के विना शरीर नहीं रह सकता और शरीर के विना धर्मसाधन नहीं हो सकता । भगवान् ऋषभदेव ने गन्ने के रस से उपवास की समाप्ति की थी। आहार किसी न किसी रूप में सभी प्राणधारियों के लिये आवश्यक है । इसी से आहारदान प्रशंसनीय है । अत: आहारदाता बहुत पुण्यलाभ करता है । राजा श्रेयांस, मधु, वज्रजङ्घ आदि दाताओं में उदाहरणीय हैं। आहारदान किसी फल की इच्छा के विना देना चाहिये । परलोक के लिये दान पाथेय के समान है । जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा, चतुर्विध संघ, जिनवाणी ये दान के योग्य स्थान हैं। विभिन्न प्रकार की जिनप्रतिमाओं के निर्माण कराने से बहुत पुण्य का संचय होता है । ४. सानुपूजा और उसका फल
जैन साधुओं का समुदाय परम आदरणीय है । क्योंकि वह धर्म का साधक है। उनकी प्राप्ति बडे पुण्य से होती है । यद्यपि सच्चे साधु विरल हैं, जो साधु शास्त्राभ्यास में तलर होते हैं, चारित्र में हीन होनेपर भी सम्यग्दृष्टि हैं वे सब आदरणीय हैं। यदि कोई एक साधु आचार में दोषी है तो सभी को उसके समान नहीं मानना चाहिये । महान् साधु रागादि से रहित होते हैं । जब कभी कोई सत्पात्र प्राप्त हो तो उसे दान देने में विलम्ब नहीं करना चाहिये । यद्यपि धन का मोह होता है, किन्तु उसपर विजय प्राप्त कर के विना फल की इच्छा के दान देना चाहिये । धार्मिक कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिये ।