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________________ - हिन्दी सार २३. सुन्दर तथा एकरूप है। नवीन भाग (१-२९ तथा १०१-१०४) के प्रत्येक पत्र में नौ पंक्तियाँ हैं । अक्षर बडे बडे हैं । यद्यपि एकरूपता है किन्तु लेखन वैसा सुंदर नहीं है । इसका लेखनकाल संवत् १२१० है। ___ डी-प्रति-के प्राचीन भाग तथा कागज तथा पी-प्रति में बहुत कुछ साम्य प्रतीत होता है । यद्यपि हस्तलेखन में भेद है किन्तु लेखनशैली में साम्य है । 'पी' प्रति का कागज तथा साधारण आकृति 'डी' से प्राचीन प्रतीत होते हैं । पी-का लेखनकाल संवत् १४८५ (१४२८ इ.) है जब कि डोका लेखनकाल संवत् १२१० (११५३ इ.) है । यह काल एक अतिरिक्त पत्र पर अंकित है जो बाद का है और इसलिये इसकी प्रामाणिकता के विषय में निःसंदेह होना शक्य नहीं है । यदि यह समय यथार्थ है तो यह अवश्य ही उस प्राचीन आदर्श प्रति का होना चाहिये जिस पर से दो व्यक्तियों ने आवश्यक भाग की प्रतिलिपि करके इसमें जोडा है। पी-प्रति तथा डी-प्रति के प्राचीन भाग में अध्यायों के अन्त में जो सन्धिवाक्य हैं, वे समान हैं। दोनों प्रतियों में कुछ पाठान्तर भी हैं । इस संस्करण में धर्मरत्नाकर का जो मूल दिया गया है, उसका आधार : पी और डी प्रति हैं । पादटिप्पण में दोनों के पाठान्तर दिये हैं। पी-प्रति के पत्रों के कोनोंपर जो टीकारूप टिप्पण है वे सब-जो पढे नहीं जा सके उन्हें छोडकर - पो के उल्लेख विना पादटिप्पण में दे दिये गये हैं। जो टिप्पण डी प्रति में ही पाये गये उन्हें डो-के निर्देश के साथ दिया है। जो दोनों में पाये गये उन्हें पो-डी-के-निर्देश के साथ दिया है। संपादक ने मूल प्रति के पाठों. को सुरक्षा का यथासंभव पूर्ण ध्यान रखा है । लेखनसंबन्धी अशुद्धियों को छोड दिया गया है। २. धर्मरत्नाकर जैसा कि नाम से प्रकट है 'धर्मरत्नाकर' धार्मिक सूक्तिरूपी रत्नों का समुद्र है। इसमें बीस अध्याय हैं और विभिन्न छन्दों में निबद्ध कुल १६६१ पद्य हैं। इसके रचयिता आचार्य जयसेन हैं। उन्होंने समन्तभद्र और अकलङक जैसे प्राचीन आचार्यों का निर्देश किया है। ग्रन्थ में प्रतिपादित विचारों, विवरणों और उपमाओं के लिये वह अपने पूर्वजों के विशेष ऋणी हैं। उनका अध्ययन बहुत विस्तृत और गम्भीर है । उन्हों ने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों की रचनाओं से बहुत से पद्य लिये हैं । क्वचित् हो । उक्तं च ' का प्रयोग किया है। अन्यथा विना किसी निर्देश के ही लिया है । इससे संपादक को उनके चुनने में बडी कठिनाई महसूस हुआ है । ग्रन्थ या ग्रन्थकारों के नाम का निर्देश बहुत ही विरल है। उदाहरण के लिये उमास्वाति का निर्देश वाचकमुख्य उपाधि से और यशस्तिलक चम्पू के रचयिता सोमदेव का कलिकालसर्वज्ञ उपाधि से किया है । ग्रन्थ में समन्तभद्र के रत्नकरण्डश्रावकाचार, गुणभद्र के आत्मानुशासन, अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपाय और सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू से अनेक पद्य उद्धृत किये गये हैं।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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