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अंग्रेजी प्रस्तावना का हिन्दी सार
पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी १. हस्तलिखित प्रतियाँ तथा मूलसंघटन
प्रो. एच्. डी. वेलणकर ने अपने जिनरत्नकोश में (पूना १९४४) धर्मरत्नाकर का परिचय देते हुए कहा है- " धर्मरत्नाकर दिगम्बर ग्रन्थकार जयसेन के द्वारा बीस अध्यायों में रचा गया है । जयसेन झाडबागड संघ के धर्मसेन के शिष्य शान्तिसेन, उनके शिष्य गोपसेन, उन के शिष्य भावसेन के शिष्य हैं । यह ग्रन्थ संस्कृत में है और जामनगर के हीरालाल हंसराज ने इसे प्रकाशित किया है।" इस सूचना के अनुसार मैंने विभिन्न विद्वानों तथा प्रकाशकों से पूछताछ की। किन्तु धर्मरत्नाकर के प्रकाशन की पुष्टि कहीं से नहीं हुई । अतः इसका प्रकाशन हाथ में लिया । जिनरत्नकोश में इसको कुछ हस्तलिखित प्रतियों का भी निर्देश है । उसके अतिरिक्त भी इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ ब्यावर, देहलो, आदि में वर्तमान हैं यह संस्करण जिन प्रतियों के आधारपर तैयार किया गया है उनका विवरण इस प्रकार है।
Pl- कागजपर लिखित यह प्रति पूना के भण्डारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट की है । इसका नंबर १०९५ (१८९१-९५) है। इसमें ९९ पत्र हैं । प्रत्येक पत्र में दस पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में लगभग चालोस अक्षर हैं । प्रत्येक पृष्ठ के किनारों पर विवरणात्मक टिप्पण हैं, जिसका अधिकांश प्रति-लेखक के द्वारा लिखा गया है । लेखन सुन्दर है और उसमें एकरूपता है। अन्त में लेखकप्रशस्ति से ज्ञात होता है कि संवत् १४८५ में दिल्ली नगर में काष्ठासंघ, माथुरान्वय, पुष्करगण के आचार्य अनन्तकोति देव को परम्परा के हरसिंह ब्रह्मचारी ने प्रति लिखाई थी।
P2- यह प्रति भी भण्डारकर रि. इ. पूना की है । इसका नं. १४३४ (१८८६-९२) है । इसमें १२९ पत्र हैं । प्रत्येक पत्र में साधारणतया ग्यारह पंक्तियाँ, किसी किसी में नो या दस भी हैं। प्रत्येक पंक्ति में लगभग तीस अक्षर हैं। प्रारम्भ के कुछ पत्रों के किनारों पर विवरणात्मक टिप्पण हैं । अन्तिम लेखक-प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि संवत् १८२७ में कालाडहरा नगर में सवाई पृथ्वीसिंह के राज्य में मूलसंघ, नंदिआम्नाय, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ, कुन्दकन्दाचार्यान्वय में भद्रारक अनन्तकीर्ति के शिष्य पं. उदयचन्द्र के लिये खण्डेलवाल वडजात्या गोत्र के रूपचन्द और उसकी पत्नी रूपकदे ने यह प्रति लिखाई थी।
____D-यह प्रति दि. जैन पंचायती मन्दिर, मस्जिद खजूर, देहलो की है । इसका नं. ११० है । अन्तिम पत्र का नम्बर १४६ है। इस प्रति के कागजों में ही विभिन्नता नहीं है किन्तु लेखन में भी भिन्नता है। प्राचीन पत्रों में बत्तीस से पैंतीस तक अक्षर लिये नो नो पंक्तियाँ हैं। लेखन