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-१७. ३९२१] - सचित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1390) भोगोपभोगास्त्यनिता हि दारा द्रव्याण्यपास्तानि बहिर्भवानि ।
विमुञ्चता भाण्डमिवेह शुल्कदानं ततस्तस्य परिग्रहस्वम् ॥ ३७ 1391) द्वयं त्यजन्नेतदथान्तरङ्गाननेकधा मन्दयते स संगान् ।
अथास्ततां यान्ति ततः स्वतो ऽन्ये मधाहते ऽधीश इवान्ययोधाः ॥ ३८ 1392) अन्वथमेते निगदन्ति शब्दं संगा नणां संजन काल एव ।
स्वभावतो गत्वरतां दधाना नगापगातोयरयं विजित्य ॥ ३९ 1393) तदुक्तम्
उद्भूताः' प्रथयन्ति मोहमसमं नाशे महान्तं नृणां संतापं जनयन्त्युपार्जनविधौ क्लेशं प्रयच्छन्ति च । एता नीलपयोदैगर्भविलसद्विद्युल्लताचञ्चलाः
काले कुत्र भवन्ति हन्त कथय क्षेमावहाः संपदः ॥ ३९*१ जिस प्रकार से जो भाण्ड-पूंजी( धन सम्पत्ति) का परित्याग कर देता है उसके उससे संबद्ध शुल्क – कर (टैक्स) - का त्याग स्वयमेव हो जाता है, उसी प्रकार जो भोग और उपभोगरूप वस्तुओं का परित्याग कर चका है उसके स्त्री और अन्य बाहय पदार्थों का परित्याग स्वयमेव हो जाता है । इसीलिये तब उस के एक आत्मा मात्र परिग्रह रह जाता है ।। ३७ ॥
इन दोनों - भोग और उपभोग' पदार्थों-का त्याग करनेवाला गृहस्थ क्रोध-मानादिरूप अन्तरंग अनेक प्रकार के परिग्रहों को मंद (उपशान्त) कर देता है। जैसे-युद्ध में सेनापति के मारे जाने पर अन्य योद्धागण स्वयं नाश को प्राप्त होते हैं --- मारे जाते हैं या भाग जाते, हैं - वैसे ही उक्त भोगोपभोग पदार्थों के दूर हो जाने पर अन्तरंग रागद्वेषादि भी हट जाते हैं ॥३८॥
पर्वत पर से बहनेवाली नदी के पानी के वेग को जीतकर मनुष्यों के संयोगकाल में ही स्वभाव से गमनशीलता को धारण करनेवाले ये ‘संग- परिग्रह - 'संग' शब्द की सार्थकता को बतलाते हैं । सम्-प्राप्त हो कर- गच्छन्ति - जो नष्ट होते हैं वे संग कहे जाते हैं, यह उस 'संग' शब्द का निरुक्त्यर्थ है ॥ ३९ ॥ सो ही कहा गया है
जो संपत्तियाँ प्रादुर्भूत हो कर मनुष्यों के असाधारण मोह को प्रथित करती हैं - उन्हें मुग्ध करती हैं, जो नष्ट हो कर उन के लिये अतिशय संताप को उत्पन्न करती हैं, तथा
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३८) 1 D परिग्रहं सचेतनाचेतनं, बाह्याभ्यन्तरम्. 2 परिग्रहत्यागः. 3 PD संग्रामे । ३९) 1D उत्पत्तिसमये, प्रश्रयकाले. 2 अनित्यतां. 3 वेगम् । ३९*१) 1 D उत्पद्यमानाः. संपद उत्पन्नाः. 2 विनाशे. 3 D ददति.4 संपदः. 5 श्रावणमेघ:. 6 D लक्ष्म्यः ।