________________
३५०
[१७. ३४
- धर्मरलाकरः - 1387 ) अनारम्भात्कायः प्रचलति नवोच्छृङ्खलतया
ततश्चित्तं चित्रां रचयति न वा बाह्यसुरतिम् । वचो ऽविन्यासो सो विरमति विकल्पद्रुमवधा -
त्रिगुप्तः स्यादित्थं मुनिरिव जनो यत्नरहितः ॥ ३४ 1388 ) यो ऽनारम्भतनुसंवततन रम्भदोषेपुर्भि
ाविध्येत कथंचनाप्यतिशुभारम्भे ऽन्यदीये समुत् । नानागन्धसमागमे ऽपि न यथा कश्चिन्मणिर्वास्यते
हेयादेयविशेषवजितनिजोद्गन्धस्वभावस्थितः ।। ३५ 1389 ) पूतामेताम पगतमः पान्ति पर्वैर्वरेण्या
मध्याः शुद्धां किमपि शव कैलेंशतस्तैर्ऋतैर्ये । ये वा युग्मं पुनरिदमिहाशेषसंपल्लतानां कन्दं मन्दं शबलमतयः स्युस्तदा ते कनिष्ठाः ॥ ३६
आरम्भ से रहित हो जाने के कारण शरीर उच्छंखलतापूर्ण प्रवृत्ति नहीं करता है, इस से मन बाहय पदार्थों के विषय में जो अनेक प्रकार के अनुराग की रचना करता था वह नष्ट हो जाती है। और इसीलिये विकल्परूप वृक्ष के निर्मल हो जाने से वचन की रचना भी स्वयं समाप्त हो जाती है । इस प्रकार श्रावक तीनों गुप्तियों से संपन्न हो कर मुनि के समान सब प्रकार से प्रयत्नरहित हो जाता है ॥३४॥
जिसका कि शरीर आरंभत्या गरूप कवच से ढंका हुआ है वह आरम्भजनित दोषरूप बाणों से किसी प्रकार भी नहीं वेधा जाता है, वह दूसरे के अतिशय शुभ आरम्भ कार्य में हर्ष का अनुभव करता है। जिस प्रकार कोई मणि अनेक द्रव्यों का समागम होने पर भी उन से सुवासित नहीं होता है उसी प्रकार वह आरम्भरहित गृहस्थ हेय उपादेय के भेद से रहित होकर अपने उत्कृष्ट गन्धस्वभाव में अवस्थित होता हुआ अनेक गन्धों का समागम होने पर भी उनसे सुवासित नहीं होता है-आरम्भजनित दोषों से वह दूर ही रहता है ॥ ३५ ॥
उत्कृष्ट आरम्भत्यागो निर्मल पूर्वव्रतों के साथ इस पवित्र प्रतिमा का पालन करते है जो कुछ मलिन उन पूर्ववतों के साथ इस शुद्ध प्रतिमा का पालन करते हैं, वे मध्यम आरम्भत्यागी माने जाते हैं। और जो मलिनति यहाँ समस्त सम्पत्ति रूप लताओं के इस युगल कन्द को मन्दता से पालते हैं, वे हीन आरम्भत्यागी होते हैं ॥३६॥
. ३४) 1 इवार्थ:. 2 P°द्रुमधातृ गुप्त: । ३५) 1 कवच. 2 बाणैः. 3PD सहर्षः । ३६) 1 मिश्रित :. 2P°व्रतैर्यो।