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- सचित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
1384) आरब्धवस्तुनि जनो हि यथाकथंचित् प्रायो ऽयत्न करणीयशतैः समाप्तिम् । रात्रि न वेत्ति नदिनं लभते न निद्रां भुङ्क्ते न भोजनमनेकविधं मनोज्ञम् ।। ३१ 1385 ) बाह्यारम्भमसृतधिषणो वर्तते ऽतिक्रमेऽपि स्वजातीनां त्रिभुवनहितप्र । पिणां वा गुरूणाम् । धर्म्या धूरिव विगणयन् सुक्रिया दुःखलभ्या इत्यारम्भे कुश इव कियद्दोषतार्णं ब्रवीमि ॥ ३२
1386 ) चिरं तु परिलालिता' अपि गुणेषु संयोजिताः कलत्रतनयादयस्त इह चारभन्ते तथा । यथाहमधुनाथिषु प्रवितरामिं भुजे स्वयं उदासवदवस्थितो भवति नूनमारम्भा ।। ३३
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उद्यत नहीं होता है । और जब ऐसी अवस्था है तब भला उसका वह हिंसक स्वभाव प्राणी के विषय में मित्रता को कैसे नहीं रोकेगा ? अवश्य वह मैत्रीभावना से शून्य होगा ॥ ३० ॥
जिस कार्य का प्रारम्भ किया गया है उसे मनुष्य प्रायः सैंकडों यत्न कर के समाप्त करना चाहता है । उसमें न वह रात और दिन को गिनता है, न निद्रा को प्राप्त होता है। और न उस कार्य की समाप्ति होने तक वह अनेक मनोज्ञ आहार को भी ग्रहण करता है ||३१||
प्रकार के
जिसकी बुद्धि बाहिरी आरम्भ कार्य में संलग्न है वह अपने जातिबन्धुओं और तीनों लोकों के हित को प्राप्त करने वाले गुरुजनोंका भी उल्लंघन करता है - उनका तिरस्कार करता है । वह दुर्लभ धर्मयुक्त उत्तम आचरणों को धूलि के समान तुच्छ मानता है इस लिये कुश के समान आरम्भ में मैं कितने दोषयुक्त तृण कहूँ ||३२||
मैंने पत्नी, पुत्र आदिकों को दीर्घकाल तक पालपोस कर गुणों में भी तत्पर किया है अर्थात् - सद्गुणी बनाया है । अब वे बाह्य आरम्भ करते हैं- धनादि कमाते हैं, इसलिये मैं अब याचकों को धन दूँगा तथा स्वयं उदासीन भाव से स्थित हो कर भोजन करूँगा । ऐसे विचार से उदासीन के समान स्थित होता हुआ आरंभत्यागी बनता है ॥३३॥
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३१) 1 PD’प्रायार्थयन्न । ३२ ) 1 धर्म युक्ताः 2 D° बस इव । ३३ ) 1 D प्रतिपालिता. 2 D ददामि . 3 आरम्भ रहितः ।