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________________ ३४६ - धर्मरत्नाकरः [१७. २२ 1374) तृप्तिन यत्र समभूदमरेश्वराणां वाञ्छातिरिक्तविषयोपरि लोलितानाम् । वाव का परजनेष्विति नातिसंगा-- दाहारवधुवतिरप्यनुभूय हेया ।। २२ 1375) चारित्रामृतरत्नचोरणपटुर्मायालताजन्मभू- . बैंकल्यं वचसामगोचरतरं धर्मार्थयोस्तन्वती। दृष्ट्वा गौरिव शाद्वलं कमपि या स्वच्छन्दवाञ्छा नरं रामा सा कथमस्तु हन्त महतां विश्रामभूश्चेतसाम् ॥ २३ 1376) मानिनीमदनसंभवं सदा दोषडम्बरमवेत्य पण्डितः । सर्वतो ऽपि च सुचित्तमात्मनश्रेदभीप्सति जहातु कामिनीम् ॥ २४ इच्छा से भी अधिक इन्द्रियविषयों में लोलुपता को प्राप्त इन्द्रों को भी जहाँ – जिस स्त्री के विषय में- तृप्ति नहीं होती है वहाँ फिर अन्य जनों के विषय में क्या कहा जाय? अर्थात् तब वैसी अवस्था में उनसे अतिशय तुच्छ सुखसामग्री को प्राप्त कर सकने वाले अन्य मनुष्यादिकों को उससे तृप्ति हो ही नहीं सकती है । इसीलिये उसका आहार के समान उपभोग कर के उसे छोड देना चाहिये, अतिशय आसक्ति से उसका उपभोग करना योग्य नहीं है।।२२॥ - जो स्त्री पुरुषों के चरित्ररूप अद्भुत रत्न का अपहरण करने में चतुर, मायारूप लता को जन्मभूमि, धर्म और अर्थ पुरुषार्थ को अनिर्वचनीय विकलता को विस्तृत करनेवाली तथा गाय जैसे घास से हरेभरे प्रदेश को देखकर स्वच्छन्दतापूर्वक उसकी इच्छा किया करती है, उसी प्रकार जो स्वेच्छाचारितापूर्वक उसकी इच्छा करती है - उसके विषय में आसक्त होती है- ऐसी स्त्री महापुरुषों के चित्त का विश्रामस्थान कैसे हो सकती है ? अर्थात् महापुरुष ऐसी स्त्री का कभी विश्वास नहीं किया करते हैं ॥२३॥ विद्वान् यदि अपने चित्त की पूर्ण शुद्धि को चाहता है तो उसे स्त्री संबन्धी कामभोग से उत्पन्न हुए दोषों के आडम्बर को जानकर उस स्त्री का त्याग करना चाहिये ॥ २४ ॥ २२) 1 स्त्रीषु । २३) 1 P°चरचरं. 2 शाद्वलं हरित स्थानं धनादि शावलं पुरुषं च. 3 विवेकि जनानाम् । २४) 1 त्यजतु. 2 P°कामिनोः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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