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________________ १७. २१] 1371 ) उक्तं च - स चित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् - ३४५ पापिष्ठैर्जगतीविधीर्तमभित: : प्रज्वाल्य रागानलं क्रुद्धैरिन्द्रियल ब्धकैर्भयपदैः संत्रासिताः सर्वतः । हन्तैते शरणैषिणो जनमृगाः स्त्रीच्छद्मना निर्मित घातस्थानमुपाश्रयन्ति मदनन्याधाधिपस्याकुलाः ।। १९*१ 1372 ) हासो ऽस्थिसंदर्शनमक्षियुग्ममत्युज्ज्वलं तत्कलुषं वसायाः । कुचादि पीनं पिशितं घनं तत्स्थानं रतेः किं नरकं न योषित् ॥ २० 1373 ) यदत्र लोकेऽथ परे नराणामुत्पद्यते दुःखमसह्यवेगम् । विकासिनीलोत्पलचारुनेत्रास्त्यक्त्वा स्त्रियस्तस्य न हेतुरन्यः ॥ २१ कहा भी है अतिशय पापी, दुष्ट और भय के स्थानस्वरूप इन्द्रियरूप व्याधों के द्वारा संसाररूप मृगादि पशुओं के निवासस्थान के चारों ओर रागरूप आग को जलाकर सब ओर से पीडा को प्राप्त कराये गये ये प्राणिरूप मृग खेद है कि रक्षा की अभिलाषा से व्याकुल हो कर स्त्री के मिषसे बनाये गये कामदेवरूप व्याधराज के मारणस्थान का आश्रय लेते हैं ॥१९१॥ स्त्रियों का हास्य मानो हड्डियों का दर्शन है, उनकी अतिशय निर्मल ऐसी दोनों आँखें मेद से कलुषित - मलिन है, तथा पुष्ट स्तन आदि अवयव सघन दृढ मांस के पिंड हैं । तथा जो संभोग का स्थान अर्थात् योनि है वह प्राणियों का घात करने का स्थान है । इसीलिये अनुराग की स्थानभूत स्त्री क्या साक्षात् नरक नहीं है ? अर्थात् वह प्राणी को साक्षात् नरक में ले जानेवाली है ॥ २० ॥ इस लोक में अथवा परलोक में जो मनुष्यों को असहय वेगवाला दुःख उत्पन्न होता है उसका कारण विकसित नील कमल के समान सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ ही हैं, उन को छोडकर अन्य कोई भी दुःख का कारण नहीं है ॥ २१ ॥ १९* १ ) 1D विनाश [ निवास ] for विधीत 2D समन्तात् । २० ) 1 P° मभ्युज्ज्वलं । २१) 1 D परलोके 2 दुःखस्य । ४४
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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