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________________ -धर्मरलाकरः1368) पूर्वादिष्टवतगणशिरो ऽलंकरोत्येतया यः सो ऽह्रि ब्रह्मव्रतगुणवतां वर्तते मूनि धीमान् । -- पूर्वैरेतां विरलविरलं पाति मध्यो यथोक्तः । रक्षत्येतद् द्वितयमपि चेत्कहिचित्स्याल्लघीयान् ॥ १७ 1369) स्वात्मोपलम्भसुखसंगपराङ्मुखस्य कन्दपसर्पविषवेगविमोहितस्य । नारीनिषेवणपरायणमानवस्य नो शीलसंयमगुणाः सविधे वसन्ति ।। १८ 1370 ) हेयादेयविचारणाविरहिता बुद्धिर्न धन॑ धुरं धर्तुं यत्र सहा सुधाद्रवमुचो ऽगण्या गुरूणां गिरः।। चेतो ऽने कविकल्पजालगहने नैवैकतानं क्वचि-- द्रागः कोऽपि समुच्छलत्यविकलो रामाप्रसंगे नृणाम् ॥ १९ जो श्रावक पूर्व में निर्दिष्ट व्रतसमूह रूप शिर को इस प्रतिमा से विभूषित करता है, अर्थात् पूर्व सब प्रतिमाओं के साथ इस प्रतिमा का पालन करता है, वह बुद्धिमान् दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले मनुष्यों के अग्रभाग में स्थित होता है-वह दिवा मैथुन त्यागियों में श्रेष्ठ माना जाता है । और जो पूर्व प्रतिमाओं के साथ इस प्रतिमा का विरल विरल पालन करता है- कदाचित् पालन करता है, और कदाचित नहीं भो पालन करता है - वह मध्यम दिवा-मैथुन त्यागो कहा गया है । इन के अतिरिक्त जो इन दोनों का भी कदाचित् रक्षण करता है वह अतिशय हीन माना गया है ॥ १७ ॥ जो मानव आत्मस्वरूप की प्राप्तिरूप सुख से दूर रहता हुआ कामरूपी सर्प के विषवेग से मूच्छित होकर स्त्रीसंभोग में तत्पर होता है उसके पास शील संयम आदि कोई भी गुण नहीं रहते हैं ॥ १८॥ स्त्री संभोग में मनुष्यों के कोई ऐसा पूर्ण रागभाव उत्पन्न होता है जिससे उनकी हेय-उपादेय के विचार से रहित बुद्धि धर्म की धुरा के धारण करने में असमर्थ होती है - वह धर्म की ओरसे विमुख रहती है, अमृतरूप रस को छोडनेवाली गुरुजनों की वाणी की कोई गणना नहीं की जाती है-उसकी अवहेलना की जाती है, तथा अनेक विकल्पों के समहरूप वन में विचरता हुआ चित्त कहीं - शुभ क्रियाओं में -एकाग्रता को नहीं प्राप्त होता है ॥ १९ ॥ १७) 1 पूर्वकथित. 2 दिवसे. 3 D मस्तके. 4 P°रक्षत्वेत । १८) 1 D निकटे। १९) 1 P°सुहा. सुधा ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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