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________________ ३४३ -१७. १६] - सचित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1364) भोगोपभोगविभवैकभुवो हि भामा नामापि रागजलधि सततोत्तरङगम् । यासां तनोति तुहिनद्यतिबिम्बतुल्यं तत्सेवनं न करणीयमतो ऽह्नि विज्ञः ॥ १३ 1365 ) विश्वप्रदेशान् प्रविलध्य रागरजस्तथा विस्फुरति प्रसौँ । आत्मप्रकाशं कलुषीकरोति यथा रजोऽभ्युल्लसितं तमोरेः ॥ १४ 1366 ) अर्घस्य रागजलधेर्विदधाति शोषं पोषं च संयमतरोर्व्यवहारवल्ल्याः । वृद्धि महद्धिनिवहं निजयोग्यतां च यः सेवते न दिवसे नियमेन रामाः ॥ १५ 1367) उल्लाससंलापभरं गणानो दिने युवत्या ह्यनुरागमत्या । कैश्चिच्च हस्येत विनिन्द्यते ऽन्यैदिवा व्यवायं विजहात्वतो ऽसौ ॥१६ स्त्रियाँ भोगोपभोग के वैभवका अधिष्ठान है -उनके आश्रय से प्राणी भोग और उपभोग वस्तुओं के उपभोग में प्रवृत्त हाते हैं । चन्द्रबिम्ब के समान उनका केवल नाम भी राग रूप समुद्र को सेकडों विस्तृत तरंगों से-उत्कण्ठादिकों से- व्याकुल बनाता है । इसलिये विज्ञजनों को उनका सेवन दिन में नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥ रागरूप धूलि समस्त प्रदेशों को लाँघकर हठात् इस प्रकार से वृद्धिंगत होती है व आत्मा के प्रकाश को- उसके ज्ञानादिमय स्वरूप को - कलुषित - मलिन किया करती है जिस प्रकार कि धूलि वृद्धिंगत होकर सूर्य के प्रकाश को कलुषित कर दिया करती है ॥१४॥ जो नियम से दिन में स्त्रीसेवन नहीं करता है वह आधे रागरूप समुद्र को सुखा डालता है तथा संयमरूप वृक्ष को पुष्ट करता हुआ वह व्यवहार रूप लता को भी वृद्धिंगत करता है। इस तरह दिन में अतिरिक्त स्त्रीसेवन न करने से वह वैभव की वृद्धि के साथ योग्यता को भी बढाता है ।। १५ ।। दिन में अनुराग बुद्धि से युवती स्त्री के साथ हर्षित होकर संभाषण करनेवाले मनुष्य की अन्यजन हँसी मजाक किया करते हैं और दूसरे कितने ही जन उसकी निन्दा भी करते हैं । अतः व्रती पुरुष के लिये दिन में मैथुनसेवन छोडना चाहिये ॥ १६ ॥ १३) 1 चन्द्रबिम्ब. 2 D दिवस. 3 दिवाब्रह्मचारिभिः । १४) 1 P° रागरयः. 2 हठात. 3 सूर्यस्य। १५) 1 °निजकार्यनियोज्यतां च । १६) 1 D मैथुनम्. 2 त्यजतु ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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