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________________ ३४२ - धर्मरत्नाकरः - [१७. ९1360 ) पूर्वप्रणीतप्रतिमाभिरेतां यः पालयेत्सर्वसचित्तदूराम् । स सत्तमो ऽवादि लघुश्च कांचित्कुर्वन् कदाचिच्च यथाकथंचित् ।। ९ 1361 ) व्रतानि सर्वाण्यपि पाति यत्नात् यः प्रोषधेष्वेव सचित्तमोची। सुसंयमस्फारणसक्तचित्तः स मध्यमो ऽगायि सचित्तमोची ॥१० 1362) वारिषेणोऽत्र दृष्टान्तः प्रोषधव्रतधारणे । रजनीप्रतिमायोगपालने ऽप्यतिदुष्करे ॥ ११ सचित्तपतिमाख्या । 1363) सीमन्तिनीनयनगोचरतां प्रयाताः स्वं न स्मरन्ति न परं सुविवेकिनोऽपि । कांचिद्दशामुपगता वचसामगम्यां प्रस्पन्दनादिरहिता इव योगिचन्द्राः ॥ १२ मार्दवादि रूप आत्मिक भावों को पुष्ट करने के लिये अपने संयम का पोषण करने के लिये और पूर्वोक्त दुर्लभ व्रतों का स्मरण करने के लिये सदा पालन करना चाहिये ।। ८*१ ॥ जो श्रावक पूर्वोक्त व्रत प्रतिमादिकों के साथ इस सर्व सचित्त के त्यागस्वरूप प्रतिमा का पालन करता है वह श्रेष्ठ तथा जो कभी जिस किसी प्रकार से किसी भी प्रतिमा का पालन करता है वह हीन सचित्तत्यागी कहा गया है ॥९॥ जो प्रयत्नपूर्वक सब ही व्रतों का पालन करता है, केवल पर्यों में ही सचित्त का परित्याग करता है, तथा जिसका मन उत्तम संयम के विस्तृत करने में आसक्त रहता है वह मध्यम सचित्तत्यागो श्रावक कहा गया है ॥१०॥ यहाँ प्रोषध व्रत के धारण में वारिषेण राजपुत्र का दृष्टान्त है और अतिशय दुष्कर राविप्रतिमायोग के पालन में राजा श्रेणिक के पुत्र वारिषेण का दृष्टान्त है ॥ ११॥ सचित्त प्रतिमा का कथन समाप्त हुआ। सुन्दर स्त्रियों के कटाक्षों से आक्रान्त हुए अतिशय विवेको जन भी न अपने आपको स्मरण करते हैं और न दूसरे को भी स्मरण करते हैं। वे उस समय ध्यान में स्थित श्रेष्ठ योगीन्द्रों के समान हलन चलनादि क्रिया से रहित हो कर किसी अनिवर्चनीय अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं ॥१२॥ १२) 1 प्राप्ताः सन्तः. 2 नेत्रपरिस्पन्दादिरहितम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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