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________________ -१७.८५१] - सचित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1356) संकल्पाद्दर्शनाद्विघ्नः संसर्गात् स्पर्शनात्क्वचित् । हिंसनाक्रन्दनप्रायात्पापात्प्रत्ययकारिणः ।। ६ 1357) यत्र त्रसप्रहननं हि समक्षमेव . .: तत्तत्परित्यजतु भोजनपानकाद्यम् । मा संगृहीदपि नियुक्त च मा सुधर्मा ........ मा संस्पृशच्च तदसावनुमंस्त मा च ॥ ७. 1358 ) अतिप्रसक्तिप्रतिषेधनार्थ तपोभिवद्धय व्रतबीजरूढयै । शरीरनैमम्यनिदर्शनार्थमित्यन्तराया गृहिणोऽपि दिष्टाः ॥ ८ 1359 ) अप्पीय भावपरिपोर्माणकारणटुं. हम्मासमी कहियमाणकम पि किंचि । णिच्च कुणादु णियं संजमपोसणढें । पुबुत्तदुल्लहवयाणि विसंभरेदूं ॥ ८*१ ___ भोजन में उपर्युक्त हड्डी आदिकी कल्पना के होनेपर, उनका दर्शन हो जाने पर उनका संबन्ध हो जानेपर, उनके छू जाने पर तथा कहीं हिंसा और तद्रूप रोने-चिल्लाने आदि शब्दके सुनने से भोजन में विध्न - अन्तराय - हुआ करता है । (अभिप्राय यह कि भोजन करते समय यदि मन में किसी प्रकार की घृणित का मना हो उठती है अथवा उपर्युक्त हड्डो आदि घृणित वस्तुओं का दर्शन स्पर्शन आदि होता है तो विवेको जीव को उस समय भोजन को परित्याग कर देना चाहिये) ॥६॥ जिसे भोजन-पानादि में प्रत्यक्ष में ही त्रस जीवों का घात हो रहा हो उस भोजन पानादि का परित्याग करना चाहिये। तथा जिनमें त्रस जीवों का विनाश होता हो ऐसे चेतनअचेतन पदार्थोका धर्मात्मा श्रावकको न संग्रह करना चाहिये न उस में किसीको नियुक्त करना चाहिये, न उनका स्पर्श करना चाहिये और न ऐसे कामों को करनेवालों की अनुमोदना भी करनी चाहिये ॥ ७ ॥ भोजन के विषय में अतिप्रसंग के दूर करनेके लिये, तप के बढाने के लिये, व्रतरूप बोज के अंकुरित होने के लिये और शरीर के ऊपर ममता के नष्ट करने के लिये गृहस्थों के लिये भी'अन्तराय कहे गये हैं ॥८॥ गृहस्थ को लक्ष्य कर के जो कुछ भी व्रतों का क्रम कहा जा रहा है उसका क्षमा ___७) 1PD प्रत्यक्षम्. 2 P°संग्रहीदपि । ८) 1 0 व्रतस्य बीजम् । ८७१) 1 आत्मभाव. 2 D गृही. 3D मम्.4 निज।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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