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-धर्मरत्नाकरः -
[१७.२२
1352 ) भोगोपभोगविभवैर्न समेति तृप्ति
देवाधिपः फणिपतिः किल चक्रपाणिः। एविभावसुरिवेत्यवगम्य भोग
रन्यैः प्रतुष्य विजहातु सचित्तजातम् ॥ २ 1353 ) यमश्च नियमश्चेति द्वौ त्याज्ये वस्तुनि स्मृतौ ।
यावज्जीवं यमो ज्ञेयः सावधिनियमः स्मृतः ॥ ३ . 1354) आहाराचं प्रगृह्णानो भूषावस्त्रादिकं तथा ।
स्वान्तरायान् समालोच्य तत्सेवेत गृहाश्रमी ।। ४ 1355) अस्थिचर्मरुधिरं पलं तथा पूयकं कृतनिवृत्तिभोजनम् ।
एभिरेव कृतमेलनं च यत् विघ्नसप्तकमिदं समुच्यते ॥ ५
संबद्ध गोंद आदि का भक्षण करना),जन्तुसंमिश्र- सचित्त मिर्च आदिसे मिश्रित-दाल आदि का भक्षण करना, तथा ठीकसे न देखे गये आहार का ग्रहण करना ; ये पाँच अतिचार उस भोगोपभोग परिमाण को नष्ट करनेवाले हैं ॥१२११॥
भोगोपभोग के वैभवसे इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती भी इस प्रकार तृप्त नहीं होते हैं, जिस प्रकार कि इन्धन से कभी अग्नि तृप्त नहीं होती है,यह जानकर अन्य भोगों से-अचित्त वस्तुओं से- संतुष्ट होकर सचित्त वस्तुओं के समूहको छोड देना चाहिये ॥२॥
त्याज्य वस्तुओं के त्याग के विषय में यम और नियम ऐसे दो प्रकार हैं । उनमें जीवनपर्यन्त जो त्याज्य वस्तु का त्याग किया जाता है उसे यम और जो कुछ कालमर्यादा के अनुसार उसका त्याग किया जाता है उसे नियम कहते हैं ॥ ३ ॥
गृहस्थ जिन आहारादि रूप भोग वस्तुओं को तथा भूषण और वस्त्र आदि रूप उपभोग वस्तुओं को ग्रहण करता है उनका सेवन उसे अपने अन्तरायोंका सम्यक् विचार करके ही करना चाहिये ॥४॥
- हुड्डी, चमडा, रक्त, माँस, पोव तथा जिस भोज्य वस्तु का त्याग किया गया है, ये छह और इनसे मिश्रित भो; इस प्रकार इन्हें विधिन सप्तक कहा जाता है। इनका गृहस्थको त्याग करना चाहिये ॥५॥
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२)1,इंद्रः. 2 इंधनैः. 3 अग्नि:. 4 PD प्रसकं [भं ] ग्रसन्. 5 D त्यजतु. 6 D मिश्रम् । ३) 1 P त्याज्यौ । ५) 1 D मिश्र. 2 अन्तरायम्, D अन्तरायाः ।