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-१७. १९११] - सचित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
३३९ 1347 ) भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत्किलामीषाम् ।
भोगोपभोगविरहादिह न हि लेशो ऽपि हिंसायाः ॥ १४७ 1348 ) वाग्गुप्तेर्नास्त्यनृतं न समस्तादानविरहतः स्तेयम् ।
नाब्रह्म मैथुनमुचः संगो नाङ्गे ऽप्यमूर्छस्य ॥ १*८ 1349) इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति सुमहाव्रतत्वमुपचारात् ।
उदयति चरित्रमोहे लभते न तु संयतस्थानम् ॥ १७९ 1350 ) भोगोपभोगमला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा ।
अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावतस्त्याज्यौ ॥ १*१० 1351) दुःपक्वस्य निषिद्धस्य जन्तुसंबन्धमिश्रयोः ।
अवीक्षितस्य च प्राशस्तत्संख्याक्षतिकारणम् ॥ १११
भोग और उपभोग रूप वस्तुओं के निमित्त से गृहस्थों के स्थावर जीवों की हिंसा हुआ करती है, परन्तु इस व्रत में - भोगोपभोग परिमाण में-बहुतसी भोगोपभोग वस्तुओं का परित्याग हो जाने से तन्निमित्तक हिंसा का उनके लेश भी नहीं रहता है ॥ १७ ॥
भोगोपभोग परिमाण व्रती के वाग्गुप्ति-वचन के ऊपर नियंत्रण-रहने से असत्य भाष. णकी संभावना नहीं रहती, दूसरों के समस्त पदार्थों के ग्रहण में प्रवृत्त न होने से उस के चौर्य कर्म भो असंभव हो जाता है. मैथन का परित्याग कर देने से अब्रह्म भी उससे दर ही रहता है. तथा जब वह अपने शरीर के विषय में भी ममत्व बद्धि से रहित होता है तब उस के परिग्रह की तो संभावना ही कैसे की जा सकती है। इस प्रकार वह समस्त हिंसा के निर्मूल कर देने से उपचार से महाव्रती हो जाता है। परन्तु चारित्रमोह-प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का उदय रहने से वह संयत पद को-छठे- सातवें गुणस्थान को- प्राप्त नहीं होता है || १*८-९॥
विरताविरत-देशव्रतोंका पालन करनेवाले - श्रावक के जो हिंसा होती है, वह भोगोपभोग के सेवनसे ही होती है, इस को छोडकर अन्य किसी कारण से उसके हिंसा नहीं होती है, इसलिये वस्तुस्वरूप को तथा अपनी शक्ति को भी जानकर उन दोनों-भोग और उपभोगका त्याग करना चाहिये ॥१*१०॥
दुष्पक्व अर्थात् जो ठीक तरहसे नहीं पका हुआ है या आधपके हुए आहार का ग्रहण करना, निषिद्ध- आगम प्रतिषिद्ध अनन्तकायादिका- भक्षण करना, जन्तुसंबन्धी (अर्थात् जिसका सचेतन वस्तु से संबन्ध है ऐसे भक्ष्य ) पदार्थ का ग्रहण करना- (जैसे सचित्त वृक्ष से
१७) 1 स्थावराणां अनन्तकायानाम् । १*८) 1 मैथुनत्यागात् मैथुनरहितस्य ।१०९)1 यतित्वम, D मुनिव्रतम् । १*१०) 1 भोगोपभोगाभ्यामन्यतो हिंसा न. 2 भोगोपभोगी। १२११) 1D सचित्तः. 2 P प्रायस्तत्. 3D भोगोपभोगयोः ।