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- धर्म रत्नाकरः
1342 ) पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिकीं निजां शक्तिम् । सीमन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्तव्या ।। १२ 1343 ) इति यः परिमितभोगैः संतुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् । बहुत हिंसा विरहात्तस्याहिंसा विशिष्टा स्यात् १३ 1344 ) एकमपि प्रजिघांसु निहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् ॥ १*४ 1345 ) पलाण्डुकेतकी निम्बसुमनःसूरणादिकम् । त्यजेदाजन्म तद्रूपं बहुप्राणिसमाश्रयम् ॥। १*५ 1346) नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूर्तजीवानाम् ।
न यथापि पिण्डशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किंचित् ।। १*६
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फिर वर्तमानकालीन अपनी शक्ति को देखकर पूर्व में जो मर्यादा की थी उसमें भी प्रतिदिन अन्यान्य मर्यादाओं को करना चाहिये । ( अभिप्राय यह है कि रागभाव को के लिये पूर्व में की गई प्रतिज्ञा को भी संकुचित कर के प्रतिदिन यथाशक्ति विविध प्रकार की प्रतिज्ञाओं को करना चाहिये ) ॥ १२ ॥
दूर कर
इस प्रकार से जो श्रावक मर्यादित भोगों से संतुष्ट हो कर अधिक भोगों का त्याग करता है उसकी अहिंसा बहुतर हिंसा के नष्ट हो जानेसे विशिष्ट प्रकार की होती है । ( अभिप्राय यह है कि भोगोपभोग वस्तुओं को जितना कम किया जायेगा आरम्भ के कम होने से उतना ही अहिंसाव्रत वृद्धिंगत होगा ) ॥। १३ ।।
जो गृहस्थ अनन्तकाय - साधारण वनस्पति - के उपभोग में उद्यत हो कर किसी एक का भी घात करना चाहता है वह उसके आश्रय से अनन्त प्राणियों का घात करता है अनन्त जीवों की हिंसा का भागी होता है । इसीलिये जो वनस्पति अनन्त साधारण जीवों से प्रतिष्ठित होती है उन सब का अवश्य ही त्याग करना चाहिये ॥ १*४॥
प्याज, केतकीपुष्प, नीम के पुष्प और सूरण आदि कों का जन्मपर्यन्त के लिये त्याग करना चाहिये । कारण कि इन पदार्थों के आश्रित इसी रूप के अन्य बहुत से प्राणी रहा करते हैं ॥ १*५॥
मक्खन का भी त्याग करना चाहिये, क्योंकि वह प्रचुर जीवों का उत्पत्ति स्थान है इस प्रकार आहारशुद्धि में विरुद्ध कुछ भी नहीं कहा जा सकता है ॥ १*६॥
१*२) 1 सीमाम्, D संख्यायाम् २ D विषये । १३ ) 1D महाव्रतं स्यात् । १*४ ) 1 Dविना शयन्. २ D कन्दादीनाम् । १*५ ) 1 ल्हसणं, D प्याजु ल्हसणु. 2 D पुष्प । १*६ ) 1 D उत्पन्न ।