SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१७. सप्तदशो ऽवसरः] [सचित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् ] 1340) यो भोजनादिरुचितः किल को ऽपि भावो भोगाभिधां स लभते विविधप्रकारः। भूषादिको ऽपि बहुधा कथितोपभोगो भुञ्जीत तौ नियमितौ सततं गृहस्थः ॥१ . 1341 ) अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः। अत्याज्येष्वपि सीमा कार्य कदिवानिशोपभोग्यतया ॥ १*१ ___जो अनेक प्रकार के भोजन आदि - एक ही बार भोगने योग्य -कोई भी उचित पदार्थ हैं वे भोग इस नाम को प्राप्त करते हैं तथा जो भूषण आदि- अनेक बार इभोगने योग्य - बहुत-से पदार्थ हैं उन्हें उपभोग कहा गया है । गृहस्थको निरन्तर उन दोनों को-भोग और उपभोग पदार्थों को -नियमित प्रमाण में भोगना चाहिये ॥ १॥ . जो भोग पदार्थ अविरुद्ध भी हैं अर्थात् जिनका सेवन अहिंसा धर्म के विरुद्ध नहीं है उनका भी विद्वान् मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार परित्याग करना चाहिये। तथा जिन का परित्याग नहीं किया जा सकता है उनके विषय में भी इतने पदार्थों का उपभोग दिन में और इतने पदार्थोंका उपभोग रात्रि में करूँगा, ऐसी मर्यादा - प्रतिज्ञा - करनी चाहिये ॥ ११॥ " 11 : १) भोगोपभोगौ. 2 D निरन्तरम् | १*१) 1 स्त्रीआभरणेष्टादिषु, D अपरेषु ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy