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________________ ३३६ - धर्मरत्नाकर: - [१६. ३२1338 ) प्राचीनाप्रतिमाभिरुद्वहति चेद्यः प्रौषधं ख्यापितं तद्रात्रौ पितृकानने निजगृहे चैत्यालये ऽन्यत्र वा । व्युत्सर्गो सिचयेन संवृतत नुस्तिष्ठेत्तनावस्पृहः दूरत्यक्तमहाभयो गुरुरतिः स प्रौषधी प्राञ्चितः॥ ३२ 1339) व्रतानि पूर्वाणि करोति सम्यक् तथैव चेत्लोषधमादधाति । स मध्यमो निःप्रतिमो लघीयान् यथाकथंचिद्वितयं वितन्वन् ।। ३३ इति धर्मरत्नाकरे प्रोषधप्रतिमाप्रपञ्चनः षोडशो ऽवसरः ॥१६॥ जो श्रावक पूर्व प्रतिमाओं के साथ पूर्व प्रकीर्तित प्रोषध प्रतिमा धारण करता है, रात्रि में श्मशान में, अपने घर में, चैत्यालय में अथवा अन्य स्थानमें इस व्युत्सर्ग तप को धारण करता है । वह वस्त्र से शरीर को ढंकता हुआ भी शरीर से नि:स्पृह होता है । वह महाभय का भी दूर से परित्याग करता है, उसकी पाँच परमेष्ठियों में अतिशय श्रद्धा होती है । ऐसाप्रोषधप्रतिमाधारक लोकपूज्य होता है ॥ ३२॥ __ जो श्रावक पूर्व व्रतों का निर्दोष पालन करता है तथा उन के साथ प्रोषध को धारण करता है तो उसे मध्यम प्रोषधधारक समझना चाहिये । तथा जो श्रावक प्रतिमाओं से रहित होकर जिस किसी प्रकार से सामायिक व प्रोषध को धारण करता है, उसे जघन्य प्रोषधधारी श्रावक समझना चाहिये ॥३३॥ इस प्रकार धर्मरत्नाकर में प्रोषध प्रतिमा का विस्तार से वर्णन करनेवाला सोलहवाँ अवसर समाप्त हुआ ॥१६॥ ३३) 1 P°निःप्रतिमां.
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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