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- प्रोषधप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
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- १६. ३१]
1335 ) आत्मेष्टमतिबोधनं परिणतिः पापात्मिका हीयते मार्गे नित्यमकम्पत नवनवं संवेजनं' गुप्तयः । प्रागल्भ्यं दधति स्फुरन्त्यपि वरं ज्ञप्तिप्रगल्भा गिरः स्वाध्यायः स तु पञ्चधा निरुपमं तप्यं तपो ऽतन्द्रितैः ॥ २९ 1336 ) वपुष्यपि त्यक्तममत्वबुद्धिः प्रदर्शकं मुक्तिपथ प्रकाशकम् । असंयमोच्छृङ्खलताप्रणाशं व्युत्सर्जनं धत्तं कृतान्तरासम् ॥ ३० (1337) दासन्त्युच्चैः सर्वलक्ष्ग्यो हि यस्माल्लोकाधीशा येन ते मागधन्ति । सर्व भावा हस्तरेखन्ति यस्माद्वयाने तस्मिन् भूयतामेकतानैः ॥ ३१
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स्वाध्यायसे अपने जो इष्ट जन है उन को उपदेश दे कर सन्मार्ग में लगाया जा सकता है, उसके निमित्त से पापप्रवृत्ति नष्ट होती है, मोक्षमार्ग में सदा स्थिरता होती है,नवीन नवीन संवेग उत्पन्न होता है, (धर्म में उत्साह वृद्धिंगत होता है, मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियाँ अपने वश रहती है), तथा तत्त्वज्ञानसे सामर्थ्य को प्राप्त हुई वाणी प्रकाशमान होती है अर्थात् लोगों को हितमार्ग दिखाने में उद्युक्त होती है । वह अनुपम स्वाध्याय वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के भेद से पाँच प्रकारका है । इसलिये उस स्वाध्याय तप का निरन्तर आलस्य रहित होकर आचरण करना चाहिये ॥ २९ ॥
जिस व्युत्सर्ग तप के प्रभावसे प्राणी अपने शरीर के विषय में भी ममत्व बुद्धि को छोड देता है, जो प्रदर्शक हो कर मोक्षमार्ग को प्रकाशित करता है, असंयमभाव से होनेवाली स्वेच्छाचारिता को नष्ट करता है, तथा जिसने मनकी चञ्चलता को नष्ट किया है ( ? ) उस व्युत्सगं नामक अभ्यन्तर तप को धारण करना चाहिये ॥ ३० ॥
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जिस ध्यान के प्रभाव से सर्व सम्पत्तियाँ दास के समान सेवा करती है, लोक के स्वामी इन्द्र, धरणेन्द्र व चक्रवर्ती आदि - स्तुति किया करते हैं तथा जिससे सब पदार्थ हाथ की रेखाओं के समान स्पष्ट जाने जाते हैं, ऐसे उस उत्तम ध्यान में एकाग्रचित्त होना चाहिये ॥३१॥
२९) 1 PD वैराग्यम् । ३० ) 1 कायोत्सर्गम्. 2 यूयं कुरुत. 3 प्रलम्बितभुजम्. P° कृतान्तसम्°, D अभ्यन्तरअंशं । ३१) 1 ध्यानात् 2 ध्यानेन 3 भट्टत्वं कुर्वन्ति भट्टा इव भाचरन्ति वा D स्तुवन्ति 4 ध्यानात्.
5 ध्याने ।