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________________ [१६. २५ - धर्मरत्नाकरः1331) शित्यास विशेषाश्च क्षुदादिसहनं तथा । संवेगभावितस्वान्तः कायक्लेशस्तदुच्यते ॥२५ 1332) यथादेशं यथाकालं यथादोषं यथानरम् । यथागमं च कुर्वीत प्रायश्चित्तं विशुद्धये ॥ २६ 1333) चित्रीयतै त्रिजगती च वशीभवन्ति देवादयोऽ पि रिपवो ऽप्यनुगा भवन्ति । यस्याः श्रियो ऽप्युपनता जगतां दुरापा ज्ञानादि पञ्च सुविनीतिममूं तनोतु ॥ २७ 1334) पात्रं किंचित्तमिह लभते यः श्रियां कोशवासो यस्मात्कीतिः स्थगयति दिशां चक्रवालं सुशुभ्रा । अभ्यर्चा स्वं नयति नितरामुन्नति सद्गुणोघं वैयावृत्त्यं दशसु रचयेत् सूरिमुख्येषु विद्वान् ॥ २८ शिति आदिक विविध आसन विशेषों से स्थित होकर ध्यान में लीन होना, भूख आदि को बाधा को सहन करना तथा मन को धर्मानुराग से संस्कृत करना, इसे कायक्लेश कहा जाता है ॥२५॥ देश, काल, दोष और मनुष्य की शक्ति के अनुसार आत्मविशुद्धि के लिये आगमोक्त विधि से प्रायश्चित्त करना, यह प्रायश्चित्त नाम का अभ्यन्तर तप है ॥२६॥ जिस विनय तप के प्रभाव से तीनों लोक आश्चर्यचकित होते हैं,देवादिक भी वश में होते हैं, शत्रु भो अपने अनुचर (सेवक) हो जाते हैं तथा साधारण मनुष्यों को दुर्लभ ऐसी संपदायें प्राप्त होतो हैं उस ज्ञानादि पाँच विषयक विनय को करना चाहिये ।।२७।। ... वैयावृत्त्य का परिपालन करनेवाला गृहस्थ उस पात्र को प्राप्त करता है, जो अनेक प्रकार की सम्पत्तियों का भाण्डागार होता है,जिसके निमित्त से अतिशय धवल कीति दिलमण्डल को आच्छादित (व्याप्त) करती है तथा जिस के आश्रय से अपने आपको, पूजा प्रतिष्ठा को और समीचीन गुणों के समूह को अतिशय उन्नति को प्राप्त करता है। इसलिये विद्वान् को आचार्य व उपाध्यायादि स्वरूप दश प्रकार के पात्रों में वैयावृत्य को करना चाहिये ॥ २८ ॥ २५) 1 कठिन आसन । २७) 1 D विन [ य ] व्रतम्. 2 विनीतेविनयस्य. 3 जगतां पूज्याः श्रियः. D सेवा. 4 अमू विनीति दुरापाम् । २८) 1 दिशचक्रम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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