________________
-१६. २४]
- प्रोषधप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
1326) हस्ते चिन्तामणिस्तस्य दुःखद्रुमदवानलः । पवित्रं यस्य चारित्रैश्चित्तं सुकृतजन्मनः ।। २०*२ 1327 ) स्वाहारतो यथाशक्ति ग्रासादिपरिहापनम् ' ।
ऊनोदरं तदाख्यातं रुध्यते' गाद्धर्यमुद्धतम् ॥ २१ 1328 ) दातृपात्र गृहवस्तुगोचरो मानसे भवति यो विनिश्चयः ।
उद्धताक्षबलभङ्गकारणं तत्तपो कथि' जिनस्तृतीयकम् ॥ २२ 1329 ) एकान्तयोगत भावनादिसिद्धये गतासंयत जन्तु संगा ।
या स्थितिः शून्यनिकेतनादौ विविक्तशय्येति तपस्तदुक्तम् ॥ २३ 1330 ) कारणं करणवृत्तिरोधने कामदर्पदलने क्षमं तपः । सर्पिरादिरसवर्जनं यथाशक्ति पञ्चममगादि' संयतैः ॥ २४
३३३
जिसका जन्म पुण्य से सुशोभित है, चारित्र से चित्त पवित्र है, उसके हाथ में दुःखरूपी वृक्ष को वनाग्नि के समान भस्म करनेवाला चिन्तामणि रत्न स्थित है, ऐसा समझना चाहिये ॥ २०२ ॥
अवमौदर्य - ऊनोदर तप
अपने आहार के प्रमाण में (एक, दो व तीन आदि ) यथाशक्ति ग्रासों का कम करना, इसे दर तप कहते हैं । इस तप से आहार के विषय में जो उत्कट लोलुपता होती है वह नष्ट होती है ॥ २१ ॥
दाता, बर्तन, घर और वस्तु के विषय में जो मन में निश्चय होता है - यदि आज पुरुष, स्त्री अथवा पति-पत्नो पडगाहन करेंगे, तो आहारको ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं ग्रहण करूंगा, इत्यादित्रिम किया जाता है उसे जिन भगवान् ने तीसरा तप- वृत्ति परिसंख्यान कहा है। यह तप उन्मत्त इन्द्रियों के बल को नष्ट करनेवाला है - उन्हें - विषयों की ओरसे विमुख किया करता है ॥ २२ ॥
-
एकान्त समाधि और व्रत ( और मैत्री ) आदि भावनाओं को सिद्ध करने के लिये निर्जन ( पर्वत को गुंफा आदि) स्थानों में, जहाँ असंयत स्त्रीपुरुषादि तथा अन्य प्राणियों का संपर्क न हो, रहना उसे विविक्त शय्यासन नामक तप कहते हैं ॥ २३॥
यथाशक्ति जो घी आदि रसोंका परित्याग किया जाता है उसे संयमी जनों ने पाँचवा - रस परित्याग - तप कहा है । यह तप इन्द्रियों के व्यापार - विषय प्रवृत्ति - के रोकने में कारण एवं काम के अभिमान के नष्ट करने में समर्थ है ॥२४॥
w
२१) 1 त्यजनम्. 2 P° रुद्ध्यतो । २२ ) 1 D कथितम् । २४ ) 1 गदितम्, D कथितम् ।