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________________ ३३२ - धर्मरत्नाकरः [१६. १७1320 ) विनिर्ममेऽनामिकयाविनिन्धः श्रुतैकभक्त्या श्रुतसागराख्यः । श्रेयः श्रियं प्राप यतो दुरापां श्रेयस्यतु प्राणिगणस्ततोऽपि ॥ १७ 1321 ) श्रीदत्ताप्यकरोद्धर्मचक्रवालं यतो ऽभवत् । अर्धचक्रिसुता धर्मचक्रचिह्न स्वमिच्छती ॥ १८ 1322) संपदा' संपदास्थानं पञ्चमी कमलश्रिया । रोहिणी रोहिणी चक्रे सशोका शोकहारिणीम् ॥ १९ 1323) नन्नरन्तर्यसान्तयतिथितीक्षिपूर्वकः । उपवासविधिश्चित्रश्चिन्त्यः श्रुतसमाश्रयः ॥ १९*१ 1324) निगदितं बहुधेति जिनेश्वरैरनशनं भवसंततिनाशनम् । यदभिसेवनमाचरतां सतां गलति कर्मकदम्बकडम्बरम् ॥ २० 1325) विशुध्ये नान्तरात्मायं कायक्लेशविधि विना । किमग्नेरन्यदस्तीह काञ्चनाश्मविशुद्धये ॥ २०*१ __ अनामिका श्राविकाने श्रुतज्ञान के ऊपर असाधारण भक्ति रखकर श्रुतसागर नाम के प्रशंसनीय तप को किया था, जिससे उस को श्रेयान् राजा के भव में दुर्लभ मोक्षलक्ष्मी प्राप्त हुई । इसलिये सभी प्राणिसमूह को शुभकार्य में प्रवृत्त होना चाहिये ॥१७॥ अपने को धर्मचक्र का चिन्ह प्राप्त होवे, ऐसी इच्छा रखनेवाली श्रीदत्ता ने धर्मचक्रवाल नामक व्रत को किया था, इस से वह अर्धचक्रवर्ती को कन्या हुई ॥ १८ ॥ कमलश्री नामक श्राविका ने ऐश्वर्य से सम्पत्ति के स्थानभूत पंचमी व्रत को किया था तथा शोकपोडित रोहिणोनामक श्राविका ने शोक को हरनेवाले रोहिणी व्रत को किया था। जो तपोव्रत आगम में कहे गये हैं, उनके अनेक प्रकार हैं। उनका विचार कर के स्वरूप को समझ कर के उनका आचरण करना चाहिये । यथा- कोई तपोव्रत निरन्तर करना पडता है, कोई व्रत सान्तर- कुछ समयका अन्तर दे कर - करना पड़ता है । कोई व्रत पंचम्यादि विशेष तिथि में ही किये जाते हैं और कोई व्रत - रोहिणि आदि - विशेष नक्षत्र के समय में किये जाते हैं ॥१९*१॥ __जिनेश्वरोंने संसार परम्परा को नष्ट करनेवाले उस अनशन तप को अनेकप्रकार कहा है, जिसका कि सेवन करनेवाले सज्जन आने कर्म सम.ह के प्रभाव को नष्ट करते हैं ॥२०॥ यह अन्तरात्मा कायक्लेश तप के बिना शुद्ध नहीं हो सकता है । सो ठीक भी है, क्यों कि, सुवर्ग पाषाण को शुद्धि के लिये अग्निको छोड कर दूसरा कोई उपाय है क्या ॥२०*१ १७) 1 Dममतारहित. 2 D श्रेयांस. 3 D खण्डयति । १८) 1 व्रतं उपवास च । १९) 1D विभूत्या. 2 D व्रतम् । १९*१) 1 P°तीर्थक्ष । २०) 1 यस्यानशनस्य । २०*१) 1 PD °ध्येतान्त ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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