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________________ ३३१ -१६. १६] - प्रोषधप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1317) आनन्दतो ऽनन्तधनश्रियो ते ई विधि प्रोषधमग्रहीष्टाम् । आनन्दतो ऽनन्तधनश्रियौ ते संसाररुप्रोषधमेतदेव ॥ १४ 1318) विदेहादौ क्षेत्रे कुलकरगणैः प्राप्य जननं' वितीर्याराहानं परममुनिपानां च विधिना । कृतः कल्याणाख्यः सकलजिनपानां विधिरयं समग्रैस्तैर्भट्टैरविचलधिया सौख्यसरणिः ॥ १५ 1319 ) कल्याणराजसुतपो कृत राजगुप्त श्चान्द्रायणेन सह संखिकया च धीरः। आचाम्लवर्धनमधीरजनाविषह्यं दैवीं च खेचरभवां श्रियमाप तेभ्यः ॥ १६ समस्त उत्कृष्ट व्रतविधानों- शार्दूल विक्रीडित आदि व्रत विशेषों- का व्याख्यान भी किया था तया स्वयं आचरण भी किया था। इसके अतिरिक्त छन्दों-काव्यगत वृत्तों के समान अतिशय मिले हए और प्रस्तारों का- रचनाविशेषों का- आश्रय लेनेवाले उन कितने ही व्रतविधानों का आचरण सर्वज्ञों के अतिरिक्त अन्य जनों ने भी आदरपूर्वक किया था उनका हम यहां इस प्रकार से कथन करते हैं ॥ १३ ॥ अनन्त और धनश्री नाम के दो भव्यों ने व्रतपालन की इच्छा से प्रोषध को धारण किया था। इससे वे दोनों आनन्द से अनन्त धन और लक्ष्मी से सम्पन्न हुए । संसाररूप रोग के नष्ट करने के लिये यही उत्तम औषध है ॥१४॥ कुलकर समूहों ने विदेहादि क्षेत्र में जन्म लेकर विधिपूर्वक उत्तम मुनियों को दान दिया था। तथा सर्व तीर्थंकरों की कल्याण नाम की इस विधि को किया था । (प्रत्येक कल्याण के दिन विधिपूर्वक उपवासादि किया था)। इससे उन सब भद्रजनों ने निश्चल बुद्धि से सुख के मार्ग को प्राप्त किया था॥ १५ ॥ धोर राजगुप्त ने संखिका श्राविका के साथ चान्द्रायण तप और कल्याणराज नामक तप को किया था। तथा कातर जनों के लिये असह्य ऐसे आचाम्लवर्धन नामक तप को किया था। उन व्रतोंके प्रभाव से वे देवोंकी लक्ष्मी को और विद्याधरों की विभूति को प्राप्त हुए थे। . १४) 1 अनन्तश्रीधनश्रीश्रियो द्वे. 2 द्वे वाञ्छके. 3 द्वे गृहीतवत्यौ. 4 रोगः विनाशकः वा । १५) 1 D पूर्वभव. 2 D समस्तद्रव्यदानम्, आसमन्तात् दानम् । १६) । कृतवान्. 2 कश्चिद् राणा. 3 PD सुप्तः संख्यावल्या व्रतम्, D बिनिभद्रपूर्वभवे ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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