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- १७. २६*१]
- सचित्तादिप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
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1377) जनयतितरां चिन्ता यासां दशा दश कामिना
मखिलजगतां याश्चैकैका प्रवृद्धिमती सती । स्थग नपुणाः श्यामागीस्ता विचारपराः सदा
वितिमिरमहादृष्टयन्धत्वप्रदा इति मुञ्चतु ।। २५ 1378 ) अहं रामा कामानुभवनपरिप्राप्तधृतिकः
सदा निर्वेदोत्थाखिलविषयवैतृष्ण्यमतिकः । इदानीं तिष्ठन्त्यो ऽपि हि युवतयो मे ऽन्यनृसमा
इतीत्थं मत्वा यस्त्यजति रमणीब्रह्मविदसौ ॥ २६ 1379 ) हरिणच्छीवग्गाओ कस्स वि पुणु सव्वदो विरदी ।
इय सुत्तट्ठ पालउ कालं भावं तु वयसत्ती ॥ २६*१
जिन स्त्रियों को चिन्ता - तद्विषयक विचार कामी पुरुषों के उन दस कामावस्थाओ को उत्पन्न करतो है जिनमें से एक एक अवस्था भी वृद्धिंगत हो कर समस्त जगत् कों व्याप्त करती है । ये स्त्रियाँ सदा दूसरों के दोष ढकने में निपुण हो कर तिमिर रोग के बिना हो दृष्टि में अतिशय अन्धपने को उत्पन्न करती हैं । ऐसा विचार कर के विद्वानों को उनका सदा त्याग करना चाहिये ॥ २५ ।।
___ मैं स्त्रियों के साथ कामभोगविषयक अनुभव से धैर्य को प्राप्त कर चुका हूँ - उसकी ओर से सन्तुष्ट हो चुका हूँ। इस समय अन्य मनुष्यों के समान मेरे सामने उन युवती स्त्रियों के स्थित रहने पर भी मेरो बुद्धि निरन्तर वैराग्य से- उत्पन्न विषय तृष्णा से- कामभोगविषयक अनासक्ति से परिपूर्ण हो चुकी है । इस प्रकार से विचार कर के जो स्त्रियों का परि. त्याग किया करता है उसे ब्रह्मवित्- आत्मज्ञ या ब्रह्मचर्य का ज्ञाता- जानना चाहिये ॥२६॥
हरिण के समान नेत्रोंवाली उन स्त्रियों की ओर से किसी विरले पुरुष को ही पूर्णतया वैराग्य प्राप्त होता है, ऐसा सूत्रार्थ समझकर काल, भाव और व्रत के सामर्थ्य की मार्गप्रतीक्षा करे। अर्थात् वैराग्य योग्य काल, परिणाम, वय और सामर्थ्य के प्राप्त होने पर स्त्री का त्याग करना चाहिये ॥ २६*१ ।।
२५) 1 D अतिशयेन । २६) 1 D अमुना प्रकारेण । २६*१) 1 P° सव्वदो ह [हवे] वि ।