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धर्म रत्नाकरः
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1288 ) इदमनावरतां चरतामभ्रूज्जलनिधौ मरणं तरणं परम् । परभवे व्यसनं व्यसनाशनं प्रवचने ऽभिहितं स्वहितं सदा ॥ ७९ 1289 ) सामायिकस्य मूलं गुरुपञ्चकमस्मरन् सुभोमो' ऽपि । असुरे जलधिमध्ये saf नरके सप्तमे ऽप्यजनि ॥ ८० - 1290 ) सामायिकानभिज्ञो ऽपि मिथिलापद्मको भ्युपैत् । वासुपूज्यनमस्यातस्तद्भत्रे ऽप्यूजितां श्रियम् ॥ ८१
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[ १५.७९ -
1291 ) समन्तभद्रस्य च भस्मकाशनं वितन्वतो ऽभिस्तुतिमात्रकं मुनेः । स्वयं त्रुटति स्म च बन्धनान्यलमितीदमार्षे बहुधा विचारितम् ॥ ८२
1292 ) अस्तरां सुविधिना विदधातु चैत
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निर्वोदुमिच्छति यदि प्रतिमां तृतीयाम् । पूजाप्रपञ्च रचने च कियान्विशेषः सामायिकस्य गदितः प्रथमं मयैव ॥ ८३
जो जन उस सामायिक का आचरण नहीं करते हैं, उनका संसाररूप समुद्र में डूब कर मरण होता है । 'संसार में परिभ्रमण करते हुए महान् कष्ट को सहते हैं ) और जो उसका आचरण करते हैं, उनका उक्त संसार समुद्र से अतिशय उद्धार होता है । (वे संसार परिभ्रमण से छूटकर मुक्तिसुख का अनुभव करते हैं) । इसी प्रकार सामायिक का आचरण न करने वाले प्राणी परभव में व्यसन ही जिसका भोजन है ऐसे व्यसन को - कष्ट को -सहते हैं और इसके विपरीत आचरण करने वाले भव्य सदा आगम में निर्दिष्ट आत्महित को करते हैं ॥ ७९ ॥ सामायिक के मूलभूत पाँच परमेष्ठियों का स्मरण न करनेवाला - पंच नमस्कार मंत्र की विराधना करनेवाला - सुभीमचक्रवर्ती समुद्र के मध्य में असुर से मारा जा कर "सातवीं पृथिवी के भीतर अवधिष्ठान नामके नरक में उत्पन्न हुआ ॥ ८० ॥
राजा मिथिला पद्मक पद्मरथ - सामायिक का स्वरूप भी नहीं जानता था, फिर भी वह ' वासुपूज्याय नमः इस मंत्र का उच्चारण सतत करता था, इस से वह उसी भव में उत्कृष्ट लक्ष्मी को - वासुपूज्य तीर्थंकर के समवसरण में गणधर पद को प्राप्त हुआ ॥ ८१ ॥ भस्मक रोग के नाशार्थ विपुल आहार करने वाले समन्त भद्राचार्यने जब वृषभादि तीर्थकरों की स्तुति प्रारम्भ की तब उन के बन्धन स्वयमेव टूट गये थे । विषय का विचार आगम में अनेक प्रकार से किया गया है ॥ ८२ ॥
८०) 1 चक्रवर्ती. 2 वधितम् । ८१ ) 1 पद्मकः श्रियम् अङ्गीकृतवान् । ८२ ) 1 भस्म व्याधिः । ८३) 1 PD° आतस्तरां ।