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________________ • सामायिक प्रतिमाप्रपञ्चनम् - - - १५.८५ ] 1293 ) चेत्सामायिकसागरानुगतिका एताः क्रिया निश्चयात् कुर्वीतान्वहमर्जयंश्च सुखदौ तावर्थकामावपि । यत्प्राथ्यं जगदीश्वरैः प्रतिपदं यत्नैर्वचोगोचरं - स्तन्निःश्रेयसरत्नमङगकरकं कुर्याज्जनो लीलया || ८४ 1294 ) यद्येतस्याः' पिबति सुरसं निविरामं ' विरागी सांसारिक्याः श्रिय इह तदा मोक्षलक्ष्म्या वरीता । दासायन्ते जगदसुलभा रिद्वयश्चाणिमाद्या बन्धूयन्ते निरुपमगुणाः किं वृथान्यैः प्रलापैः ।। ८५ इति धर्मरत्नाकरे सामायिक प्रतिमाप्रपञ्चनं पञ्चदशो ऽवसरः ।। १५ ।। प्रातः काल सामायिक करे । इसलिये यदि श्रावक तीसरी प्रतिमाका आमरण निर्वाह करना चाहता है तो उसे निर्दोष विधिपूर्वक सामायिक को करना चाहिये । पूजा की सविस्तर रचना मे सामायिक के fear भेद हैं, यह में पहले ही कह चुका हूँ ॥ ८३ ॥ सामायिकादि क्रिया से अणिमादि गुणप्राप्ति और मुक्ति लाभ ३.२५ अर्थ और काम को भी प्राप्त करने वाला श्रावक यदि सामायिक समुद्र का अनुसरण करनेवाली वंदना - स्तुति आदि क्रियाओं को निश्चय से करता है, तो जगत् के ईश्वर अर्थात् इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती जिस पद के लिये अनिर्वचनीय प्रयत्नों द्वारा पद-पदपर प्रार्थना करते हैं उस मोक्षरूप रत्न को वह अनायास ही हस्तगत कर लेता है ॥ ८४ ॥ यदि मनुष्य विरक्त हो कर इस सामायिक प्रतिमा के उत्तम रसका निरन्तर पान करता है - उसका विधिपूर्वक सानन्द पालन करता है - उसे यहाँ सांसारिक सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं व अन्त में मुक्ति लक्ष्मी भी उसका वरण करती है । इस के अतिरिक्त जो अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियाँ अन्य संसारी जनों के लिये दुर्लभ हैं वे उसके दास के समान सेवा करती हैं, तथा बहुत बकवाद करने से क्या अनुपम गुण अनन्त ज्ञानादि - उसके बन्धन जैसे बन जाते हैं, अर्थात् बन्धु के समान सदा पास में रहते हैं ॥ ८५ ॥ इस प्रकार धर्मरत्नाकर में सामायिक प्रतिमा का विस्तार करनेवाला पन्द्रहवाँ अवसर समाप्त हुआ ।। १५ ।। ८४) 1 अङगभूषणम्, D हस्तगतम् । ८५ ) 1 सामायिकप्रतिमाया :. [विराम ] | 009 2 विनाशरहितम् J
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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