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- सामायिकप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1284 ) वचनमनःकायानां दुःप्रणिधानान्यनादरश्चैव ।
स्मृत्यनुपस्थानयुताः पञ्चेति चतुर्थशीलस्य ॥ ७५*१ 1285 ) रक्षन व्रतानि सकलान्यपि कर्बुराणि सामायिकं यदि तथाविधमेव कुर्यात् ।
वेश्माश्रमी' समयनामधरः स गीतो मध्योऽप्यसौ नियतकालनमस्क्रियाकृत् 1286 ) यस्तु व्रतानि परिपात यथोदितानि कालिकी वितनुते गुरुवन्दनां च ।
वन्दारुरेष गदितः समयस्थिति निर्वेदवर्धितमहागुणधर्मधुर्यः ॥ ७७ 1287 ) यथोक्तं यः कुर्यानियतमथ सामायिकपदं
भवारामस्फारैः करणकुविकल्पैरचलितः। अमन्दानन्दोद्यद्गुरुमहिमचिज्ज्योतिरमलो जनः सामायिक्याः श्रिय इह भवेत्पात्रमसमम् ।। ७८
वचनदुष्प्रणिधान, मनोदुष्प्रणिधान, कायदुष्प्रणिधान, अनादर व स्मृत्यनुपरस्थान के पांच चतुर्थशील-सामायिक व्रत के अतिचार हैं ॥ ७५*१॥
- जो गृहस्थ सर्व व्रतों को दोषमिश्रित - विचित्र - धारण करता है, वह यदि सामायिक व्रत को भी उसी प्रकार - दोषमिश्रित - धारण करता है, तो (धार्मिकों में) वह मध्यम श्रावक हो कर भी जघन्य माना गया है । यद्यपि वह सामायिक नियतकाल में करता है, तो भी वह जघन्य माना गया है ॥ ७६ ॥
इसके विपरीत जो उपर्युक्त सर्व व्रतों को निर्दोष पालता है तथा तीनों संध्याकाल में गुरुवन्दना को करता हैं उसे धर्म की मर्यादा को जानने वाले विद्वानों ने वंदारु - वंदना करने वाला-(सामायिक व्रती ) कहा है । वह वैराग्य से महान् गुणों को वृद्धिंगत करता हुआ धर्म के भार को धारण करता है। (तात्पर्य, जिस श्रावक के मन में विरक्ति अधिक बढ़ जाती है, वह धर्म में अधिक प्रवृत्ति करता है। उसके व्रतादिक निर्दोष और गुणयुक्त हो कर बढते जाते हैं तथा वह श्रावकों में प्रधान गिना जाता है) ॥७७ ॥ .
जैसा कि सामायिक का स्वरूप पूर्व में कहा गया है, तदनुसार जो मनुष्य संसाररूप उद्यान को विस्तृत करने वाली इन्द्रियों व कुत्सित विकल्पों से विचलित न हो कर असीम आनन्दपूर्वक उत्पन्न होने वाली व भारी महिमा से संयुक्त ऐसी चैतन्य ज्योति से निर्मल होता हुआ उस नियत सामायिक को करता है, वह सामायिकी - सामायिक सम्बन्धी अथवा समय के अनुरूप - लक्ष्मी का असाधारण पात्र होता है ।। ७८ ॥
७५*१) 1 D विस्मरणं. 2 पञ्चातीचारः . 3 सामायिकस्य । ७६) 1 गृही. 2 PD°मन. रिक्या । ७७) 1 पालयति।