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३२२ - धर्मरत्नाकरः -
[१५. ७२1279 ) एषातु नमस्या' स्यानित्या नैमित्तिकी वणिज्येव ।।
वीथीमथ देशान्तरकालान्तरमभ्युपेत्य वेत्यार्षम् ॥ ७२ 1280 ) या यत्र यदा च यथा क्रियाकलापे ऽभ्यधायि सकलापि ।
सा तत्र तदा च तथा सामायिकसुव्रतैः कार्या ॥ ७३ 1281 ) समस्तसावद्यमपास्य कुर्यादेकात्मचिन्तां यदि वा गुरूणाम् ।
गुणावलेानमथापि पाठं मनोवचःकायविशुद्ध युपेतः ॥ ७४ 1282 ) सावज्जजोगा विरमेण ठिच्चा तत्थेण विण्णाणघणं मुणित्ता ।
सुहं सहस्साणुहवित्तु सम्म पारेमि सामाइयजोगमण्डि ॥ ७४*१ 1283 ) आत्मस्थं वापि दर्पाद्यमवज्ञानादिरूपताम् ।
ततस्तत्फलभागी न बीजं धान्यं वपत्रिव ।। ७५
... यह वन्दना नित्य और नैमित्तिक के भेद से वाणिज्य - व्यापार के समान दो प्रकार की है। उसे मार्ग में अथवा देशान्तर या कालान्तर को प्राप्त होकर करना चाहिये, ऐसा आगम है ।। ७२ ॥
जो क्रिया जिस देश में, जिस काल में और जिस प्रकार से क्रिया कलाप में कही गई. है, उस सब को उस देश में उस काल में और उसी प्रकार से सामायिक व्रत के परिपालक श्रावकों को करना चाहिये ॥ ७३ ॥
मन, वचन और काय की विशुद्धि से संयुक्त श्रावक को समस्त सावध कर्म को दूर कर के एक आत्मा का चिन्तन करना चाहिये अथवा गुरुओं – पाँचों परमेष्ठियों - के गुण समूहका ध्यान करना चाहिये या फिर पाठ-सामायिक पाठ आदि -- को पढना चाहिये ॥७४॥
मैं सावध योग से रहित होता हुआ आत्मा को यथार्थ रूप से (अथव। शास्त्र से) विज्ञान स्वरूप जानकर भली भाँति अनुभव करके अब इस समय उस सामायिक योग को पूर्ण करता हूँ ॥ ७४*१॥
यदि आत्मा में उन्मत्तता, असावधानी आदि दोष रहेंगे तो सामायिक की अवज्ञादिक होने से उस से कर्मक्षय रूप फल की प्राप्ति न होगी। जैसे - कोई मनुष्य कच्चा धान्य बीज समझ कर बोएगा तो उस से फलप्राप्ति कैसे होगी ।। ७५ ॥
७२) 1 वन्दना. 2 D सर्वकालम्. 3 D मार्ग. 4 D ग्रन्थं । ७४) 1 पञ्चपरमेष्ठीनाम् । ७४.१) ID आत्मसद्भावं ज्ञात्वा. 2 D अनुभूत्वा. 3D सामायिकं करोमि । ७५) ID आर्ष ग्रन्थकथितमार्ग विना यः करोति. 2 P तत्त्वंस्तत्फल', निश्चितम. 3 P ना, पुरुषः. 4 D अवसरं विना बीजं व न्यथा न फलति ।