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________________ - धर्मरत्नाकर: 1252 ) अन्ते ब्रह्मपदैः स्तुतिं विरचयेत्तत्त्वेन मन्त्रान्तरैस्तैस्तैस्तन्मयतां व्रजन्नहरहश्चिद्भारभानु प्रभैः । कायान्तर्गतपद्ममुख्यसुपदेष्वभ्युज्जिहानैस्तमचन्द्राभैरमृतप्रवर्षिभिरलं सिन्दूरकान्तैः क्वचित् ॥ ५९ 1253 ) इत्थं ध्यात्वा विसृजतु ममात्मैव तद्धामधाम्नि तत्तद्ध्यानामृतरसभृते मानसे मे ऽर्हदीशाः । आयाता ये चतुरवयवा यान्तु देवाश्च देव्यो ऽभ्यर्च्य वीक्ष्यामृतरसघनोन्मादिनः स्वस्वधाम || ६० ३१६ - 1254) विसर्जनार्थमर्चायामागतानां यथायथम् । जपन्नेतन्मन्त्रं क्षेप्यमन्ते पुष्पाञ्जलित्रयम् ॥ ६१ [ १५.५९ 1255 ) नित्याप्रकम्पाद्भुतके वलौघाः स्फुरन्मनः पर्य यशुद्धबोधाः । दिव्यावधिज्ञानबलप्रबुद्धाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ६१*१ सर्वत्रेदं तुर्यम् । अन्त में, तन्मय हो कर, शरीरान्तर्गत कमल की मुख्य पंखुडियों में स्थित ( अज्ञान रूप) अन्धकार को मिटानेवाले महान् चैतन्यसूर्य की कान्ति के समान, तथा चंद्रसदृश विपुल अमृत की वर्षा करने वाले, क्वचित् सिंदूर जैसे कमनीय, परमात्मवाचक पदों से संयुक्त ऐसे अन्यान्य मन्त्रों से प्रतिदिन जिनेन्द्र की परमार्थं तया स्तुति करें ।। ५९ । इस प्रकार ध्यान कर के मेरा आत्मा ही उन के तेज का निवास्थान तथा उनके ध्यानरूप अमृतरस से परिपूर्ण मेरे मन में जो भगवान् अरहन्त आकर स्थित हुए हैं, तथा चार तरह के देव और देवियाँ जो कि पूजा को देखकर अमृतरस से बहुत आनन्दित हुए हैं उन्हें अपने अपने स्थान में विसर्जित करें ॥ ६० ॥ जिनपूजन में आये हुए देवों का यथायोग्य विसर्जन करने के लिये आगे लिखे हुए मंत्र को जपते हुए और तीन पुष्पांजलियों का क्षेपण अन्त में करना चाहिये ॥ ६१ ॥ जिन के केवलज्ञान का प्रवाह नित्य, निश्चल और आश्चर्यकारक हैं. जिन के मन:पर्यय नामक शुद्धज्ञान प्रकाशमान है तथा जो दिव्य अवधिज्ञान के सामर्थ्य से प्रबोध को प्राप्त हुए हैं, ऐसे परमर्षि हमारा सब प्रकार से कल्याण करें ।। ६१*१ ।। ~✓✓ ६०) 1_D देववदुन्मत्ताः । ६१ ) 1 P°मर्थाया | ६१*१) 1 Dमुनय: 2D अस्माकं कुर्वन्तु ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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