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धर्म रत्नाकरः -
1227 ) ब्रह्मपादैः प्रणवाद्यैः यहां हीं हूं हीं हः पूर्वकैः । हृच्छिरः शिखाकवचशस्त्रैरपि यथाक्रमम् ॥ ४६ 1228 ) नमः स्वाहा तथा वौषट् हुंफडन्तैः स्वरक्षणम् । पञ्चमण्डलबीजान्तैः परमेष्ठिपदैरथ ॥ ४७ 1229 ) अङ्गुष्ठादिकनिष्ठान्तन्यस्तैः शिरसि च क्रमात् । त्रीन् वा वा पञ्चधा वारान् मुद्रया परमेष्ठिनाम् ॥ ४८ 1230) पञ्चभिर्यदि वा कूटैर्न्यस्तः पूर्ववदेव हि । स्वरक्षां प्रविधायात इत्थमाहूय दैवतम् ॥ ४९
[१५.४६
प्रणव (ॐ) के साथ ह्रां ह्र, हूं, हों और न्हः इन पाँच बीजाक्षर जिनके पूर्व में हैं तथा अन्त में जिनके नम:, स्वाहा, वौषट्, हुं और फट है ऐसे ब्रह्मपादों तथा हृदय, शिर, शिखा, कवच और शस्त्रों से आत्मरक्षण करना चाहिये ॥ ४६-४७ ॥
कठकापर्यन्त पांच अंगुलियों पर लिखे गये जो परमेष्ठियों के शब्द के आगे हाँ-हीं आदिक अक्षर उन से परमेष्ठिमुद्रा धारण कर के मस्तक आदि स्थानों पर अपने दो हाथ स्थापन करने चाहिये । तथा तीन अथवा पाँच वार अंगन्यास विधि करनी चाहिये । तथा अंगुलियोंपर स्थापन किये गये कूटाक्षरों से क्षां क्षीं, क्षू, क्षौं, क्ष। इन कूटाक्षरों से दिग्बंधन करके स्वरक्षण करना चाहिये तथा आगे लिखी हुई पंचपरमेष्ठिओंकी स्तुति करनी चाहिये ॥ ४८-४९ ॥
( उपर्युक्त विषय इस ग्रन्थ में संक्षेप से कहा गया है। इसका विस्तृत वर्णन नेमिचन्द प्रतिष्ठा तिलक में इस प्रकार से किया गया है )
दोनों हाथों की कनिष्ठिकाओं से अंगूठे पर्यन्त दस अंगुलियों में क्रम से मूल में, तीन - रेखाओं पर और अंगुलियों के अग्रभागपर ॐ हां णमो अरहंताणं स्वाहा, ॐ हीं णमो सिद्धाणं स्वाहा, ॐ हूं णमो आइरियाणं स्वाहा, ॐ हौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा तथा ॐ हः णमो लोए सव्व साहूणं स्वाहा " इस प्रकार लिखकर दोनों को आपस में जोडना चाहिये और दोनों हाथों के अंगूठे को ऊपर कर के उनके द्वारा हृदय, भाल, मस्तक और वक्षःस्थल आदि अवयवों पर न्यास करना चाहिये ।
'ॐ हां णमो अरहंताणं स्वाहा हृदये ' ऐसा उच्चारण कर के हाथ के दोनों अंगूठों से हृदयपर न्यास करे । ' ॐ हीं णमो सिद्धाणं स्वाहा ललाटे ' ऐसा उच्चारण करके ललाटपर न्यास करे । ' ॐ हूं णमो आइरियाणं स्वाहा शिरसो दक्षिणे' मस्तक के दाहिने
४६) 1 D पञ्चपरमेष्ठी ।