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- सामायिकप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1222) ॐ हीं हलव्यूं काय ते चतुर्थ्यन्ता यथाक्रमम् ।
स्वाहान्तास्तु समालेख्या दिक्षु पूर्वादिषु स्वयम् ॥ ४२ 1223) उक्तं च
अहवा अट्टदल च्चिय पुज्जिओं पुव्वभणियविण्णासं ।
महरिसिणा मायावीयवेढियं सुरवइपुरत्थं ॥ ४२*१ 1224) अन्यच्च मण्डलम् -
चतुःपरमेष्ठिसंपूर्णचतुर्दलकुशेशये।
व्योमोधिोरसंयुक्तं सबिन्दु सकलं वियत् ॥ ४३ 1225) ऊर्ध्वाधोरेफसंयुक्त सबिन्दु सकलं वियत् ।
परमेष्ठयभिधानाग्रं मन्त्रराज प्रपूजपेत् ॥ ४४ 1226) संस्निग्धायोर्चनायोग्यद्रव्याणि सकलान्यतः ।
विधिना वक्ष्यमाणेन विधत्तां सकलीक्रियाम् ॥ ४५
पूर्वादिक आठ दिशाओं में क्रम से स्वयं ॐ ह्रीं ह्ल्व' काय ते स्वाहा ऐसा क्रम से लिखना चाहिये ॥ ४२ ॥
कहा भी है
अथवा अष्ट दलकमलों में सुरपति पुरस्थ इन्द्र आदिका मंत्र लिखे । अर्थात् पूर्वादिक - दिशाओं के क्रम से ॐ ह्रीं इन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं अग्नये स्वाहा ऐसा लिखे । महर्षि को कणिका में मायाबीज से वेष्टित करके लिखना चाहिये और उसका पूजन करना चाहिये ॥ ४२*१ ॥
अन्य मण्डल
चार दल के कमल में चार परमेष्ठियों के मंत्र लिखे अर्थात् सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठि के मंत्र लिखे । मध्यकर्णिका में व्योम अर्थात् 'ह' लिखना चाहिये जो ऊपर और नीचे 'र' संयुक्त है तथा बिन्दु और कलासहित 'हूं' ऐसा हो। तदनन्तर ऊपर और नीचे रेफसंयुक्त तथा बिन्दु और कलासहित 'है' जो कि पञ्च परमेष्ठिवाचक मंत्र राज है उसको पूजना चाहिये ॥ ४३ -४४ ॥
चूंकि सकल – समस्त-पूजा के योग्य द्रव्य (अर्पण करना चाहिये ) इसीलिये आगे कही जानेवाली विधि के साथ सकलीकरण क्रियाको भी करना चाहिये । (विघ्न न आवे और अपना रक्षण किया जावे एतदर्थ जो क्रिया की जाती है उसे सकली क्रिया कहते हैं) ॥ ४५ ॥
४३) 1 D पांषुडोपद्मं । ४४) 1 D हकारं । ४५) 1 D दीप्तिवन्तः।