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३०८ - धर्मरत्नाकरः
[१५. ३८1218 ) इन्द्रादयो ऽष्टौ स्वदिशामधीशा ॐ हीं पुरःस्थाः क्रमतश्च लेख्याः ।
___ स्वाहापदान्तं फणिराडधस्तादूवं च सोमो मनस्य (?) निवेशाः ॥ ३८ 1219 ) प्रणवमायाक्ली पूर्वा जया च विजयाजिता ।
अपराजितया दिक्षु स्वाहान्ताः संलिखेदिमाः ॥ ३९ 1220 ) जम्मा मोहास्तथा स्तम्मा स्तम्भिनी च विदिस्थिताः ।
ऐशान्यादिषु धान्यादिचतुर्मण्डलकान्यपि ॥ ४० 1221 ) पृथिवीमण्डलं बाह्ये चतुरं पुलिखेत् ।
विजयो वैजयन्तश्च जयन्तश्चापराजितः ॥ ४१
(गणधरवलय के मंत्र इस प्रकार है)--जैसे ॐ णमो अरहताणं । ॐ णमो सिद्धाणं ॐ णमो आइरियाणं । ॐ णमो उवज्झायाणं। ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं । ॐ णमो जिणाणं ॐ णमो ओहिजिणाणं । ॐ णमो परमोहिजिणाणं । ॐ णमो सव्वोहिजिणाणं । ॐ णमो अणंतोहिजिणाणं । ॐ णमो कुट्ठबुद्धीणं । ॐ णमो बीजबुद्धीणं । ॐ णमो पदाणुसारीणं । ॐ णमो भिण्णसोदाराणं । ॐ णमो पत्तेयबुद्धाणं । ॐ णमो सयंबुद्धाणं । ॐ णमो बोहियबुद्धाणं। ॐ णमो उज्जुमदोणं । ॐ णमो विउलमदीणं ।ॐ णमो दसपुवीणं । ॐ णमो अट्ठ महाणिमित्त. कसलाणं । ॐ णमो विउव्वणं पत्ताणं । ॐ णमो विज्जाहराणं । ॐ णमो चारणाणं । ॐ णमो पण्णसमणाणं । ॐ णमो आयासगामीणं । ॐ ह्रीं श्रीं हीं नमः इति। यह गणधरवलय प्रदक्षिण प्रकार से लिखना चाहिये । अर्थात् दाहिने तरफ से लिखना चाहिये।
अपनी अपनी दिशाके अधिपति इन्द्रादिक आठ दिक्पालों के मंत्र के प्रारम्भ में ॐ ह्रीं और अन्त में स्वाहा लिखना चाहिये। [जैसे - ॐ ह्रीं इन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं वरुणाय स्वाहा इत्यादि] धरणेन्द्र के मंत्र को नीचे और सोमदिक्पाल के मंत्र को ऊपर लिखना चाहिये ॥ ३८॥
दिशाओं के कोठों में प्रणव, माया और क्लीं को (ॐ ह्रीं पूर्वक) पूर्व में तथा स्वाहा को अन्त में लिखकर जया, विजया, अजिता और अपराजिता के नाम लिखने चाहिये। (जैसे - ॐ ह्रीं क्लीं जयायै स्वाहा । ॐ ह्रीं क्लों विजयायै स्वाहा इत्यादि ) ईशान्य आदि विदिशाओं में उपर्युक्त प्रकार से जंभा, मोहा, स्तंभा, और स्तंभिनी देवताओं के नामों को लिखना चाहिये । (जैसे - ॐ ह्रीं क्लीं जंभायै स्वाहा इत्यादि । ) इसके अनन्तर पृथिवी मण्डल व वायुमण्डल आदि चार मण्डलों को लिखना चाहिये ॥३९-४० ॥
बाहर चार द्वारपुक्त पृथिवी मण्डल को लिखना चाहिये । उन द्वारोंके नाम ये हैंविजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ॥ ४१ ॥
३८) 1 D नागेन्द्रः। ३९)1 ॐ. 2 हीं।