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- धर्मरत्नाकरः - साङ्कुशैर्दृष्टिदुर्लभैर्नेत्यध्याहार्यम् । 1207) यद्वा कोशस्थ हां देवं तं वर्णस्वरवेष्टितम् ।
ॐ हीं श्रीं संयुतैर्वर्गः स्वाहान्तैरष्टभिः क्रमात् ।। २७ 1208) पूर्वादीनि च पत्राणि पुरयेदन्तराण्यतः ।
स्वाहान्तेन च तत्त्वेन ॐ हीं श्रीं पूर्वकेण च ।। २८ 1209) पत्रान्तेषु च मध्येषु योजयेदप्यनाहतम् ।
दलान्तरेषु व्हींकारं द्वितीयमिति मण्डलम् ॥ २९ 1210) तृतीयमपि संस्तौमि मण्डलं प्रक्रमागतम् ।
क्ष्मामासनं लिखेत्कोशे बीजं तु च तदूर्ध्वगम् ॥ ३० 1211 ) ईशानाग्नेयप्रमुखदिक्षु तत्त्वाक्षराणि च ।
कोशरेखाबहिभोंगे पूर्वादिषु नभो लिखेत् ॥ ३१ 1212) षोडशस्वरसंयुक्त प्रत्येकं बिन्दुलाञ्छितम् ।।
दलानष्टौ लिखेदस्मिन्नष्टावत्रान्तराणि च ॥ ३२
अथवा वर्ण और स्वरों से वेष्टितःहो कर कणिका के मध्य में स्थित उस ह्रां देव को जिनके कि अन्त में 'स्वाहा' स्थित है, ऐसे ॐ ह्रीं श्रीं इन बीजपदों से संयुक्त आठ वर्गों से क्रमशः पूर्वादि दिशागत पत्रोंको तथा मध्य के पत्रों को भी जिसके अन्त में स्वाहा और पूर्व में ॐ ह्रीं श्रीं ये बीजपद स्थित ऐसे उसी तत्त्व से परिपूर्ण करना चाहिये । पत्रों के अन्त में व मध्य में अनाहत की भी योजना करनी चाहिये । तथा पत्रों के अन्तरालों में ह्रींकार को भी योजना करनी चाहिये । इसप्रकार द्वितीय मण्डल का कथन समाप्त हुआ ॥ २७-२९ ॥
अब क्रम से प्राप्त हुए तृतीय मण्डल स्तुति - उसका वर्णन - करता हूँ। क्ष्मा यह आसन कोष में लिखें तथा उसके ऊपर बीज लिखें । ईशान व आग्नेय आदि दिशाओं में तत्त्वा क्षर - ॐ ह्रीं श्रीं-को पूर्व में और स्वाहा को अन्त में लिखे। कोश की रेखाओं के बहिर्भाग में पूर्वादिक दिशाओं में ' नमः ' ( ? ) को लिखे ॥३०-३१॥
सोलह स्वरों से युक्त और बिन्दु से चिह्नित प्रत्येक दल लिखे। आठ दलों को तथा अन्तराल में आठ दलों को लिखे । ॐ ह्रीं श्री आरम्भ में और अन्त में नमः यह लिखे । दिशाओं
२७) 1 P°हीं. 2 वर्ग [f]. 3 P°ही. 4 श्रीं omitted | ३०) 1 Dहीं। ३१) 1 हकारः। ३२) 1 D अ आ आदिकं ।